नई दिल्ली : आजकल कुछ उन्मादी और असामाजिक तत्वों की वजह से देश भर में अशांति और तनाव का माहौल है. देश की आबोहवा में एक ऐसा रंग घुल चुका है जो हर वक्त सामाजिक सौहार्द्रता के रंग को बिगाड़ने की कोशिश में रहता है. यही वजह है कि अभी पश्चिम बंगाल भी सांप्रदायिक तनाव की आग में जल रहा है, इसलिए आज एक बार फिर से गांधी जी प्रासंगिक हो गये हैं.
जब देश के विभिन्न इलाकों में शांति-व्यवस्था कायम करने और सामाजिक सौहार्द्र कायम करने में समाज और सरकारें विफल हो रही हैं, तो आज जरूरत है महात्मा गांधी के उन नुस्खों को जानने की जिसके इस्तेमाल से वो बड़ी आसानी से दंगा अथवा तनाव को पर काबू पा लेते थे. ये बात उस वक्त की है, जब आजादी की दहलीज पर देश खड़ा था और देश के कई इलाकों में दंगे की सुगबुगाहट थी.
बात 1946 की है जब अहमदाबाद भी सांप्रदायित तनाव की आग में जल रहा था, कई नेता और कार्यकर्ता इस दंगे को बंद कराने के प्रयास में शहीद हो चुके थे. जब दंगा खत्म कराने का विकल्प जब हेमंत कुमार भाई को नहीं दिखा, तब उन्होंने 8 जुलाई, 1946 को शांति के पूजारी महात्मा गांधी को एक पत्र लिखा था.
पत्र में उन्होंने लिखा था, ‘कल अहमदाबाद में एक साम्प्रदायिक दंगा बंद कराने के प्रयास में वसन्तराव हेंगिस्टे और रज्जब अली एक ही जगह एक साथ शहीद हो गये हैं. दंगा बंद कराने के लिए वे जैसे ही रिची रोड की ओर बढ़ रहे थे, उन्होंने देखा कि हिन्दुओं का एक झुण्ड एक मुसलमान को कत्ल करने पर उतारू है. दोनों ने उत्तेजित लोगों के बीच घुसकर दृढ़ता से कहा, ‘हम दोनों को कत्ल किए बगैर इस बेचारे को नहीं मार सकते.’ उनके प्रतिरोध की वजह से उस मुलसमान की जान बच गई.’
आगे वे लिखते हैं, ‘ फिर कुछ देर बाद उन दोनों को खबर मिली कि जमालपुर के एक हिन्दू मुहल्ले को चारों तरफ से मुस्लिम मुहल्ले के लोगों ने घेर रखा है. वहां के मुसलमानों को समझा-बुझाकर शान्त करने के लिए भागते हुए वसंतराव और रज्जब अली वहां पहुंच गए. वहां उन दोनों पर तलवारों से आक्रमण हुआ और वे एक साथ शहीद हो गए.
उस वक्त वसंतराव की उम्र 32 थी. वे कांग्रेस के सक्रिय सत्याग्रही थे. रज्जब अली की उम्र 25 वर्ष थी और उन्होंने भावनगर के कांग्रेस के सत्याग्रह में भाग लिया था. इस तरह से एक हिन्दू और एक मुसलमान नव युवक ने दंगा रोकने के लिए अहिंसक प्रतिकार करते हुए अपना जीवन न्यौछावर कर दिया.
इस पत्र के पाते ही गांधी जी ने इसके उत्तर में कहा- ‘उनलोगों की मृत्यु से मैं दुखी नहीं हुआ हूं. यह सूचना पाकर मेरी आंखों में आंसू नहीं आए. गणेश शंकर विद्यार्थी ने भी कानपुर दंगा रोकने के लिए इसी प्रकार अपने प्राण अर्पित किए थे. उनकी मृत्यु का समाचार पाकर मैं हर्षित हुआ था.
आगे बापू लिखते हैं, ‘मैं आप लोगों से कहना चाहता हूं कि आप मरने का सबक सीखें, फिर सब ठीक हो जाएगा. यदि गणेश शंकर विद्यार्थी, वसंतराव और रज्जब अली जैसे और भी कुछ नवयुवक निकल पड़ते हैं, तो दंगे हमेशा के लिए मिट जाएंगे.’
बापू का ये जवाब आज हमें अपने अंदर झांकने पर मजबूर कर देती हैं. आज जिस तरह से हम उन्मादी और भीड़ का हिस्सा बन रहे हैं, आज जरूरत है बापू की इन बातों में छिपे गहरे अर्थ को समझने की.