‘हीरोज ऑफ हाइफा’ की पराक्रम की कहानी, जिन भारतीयों ने मीशनगन का सामना तलवार से किया

नई दिल्ली: हमारे वीर जवानों के शौर्य को अगर 99 साल बाद भारत की मिट्टी से साढे चार हजार किलोमीटर दूर इजरायल के हाइफा में आज भी याद किया जा रहा है तो अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि शौर्य और पराक्रम में हमारे देश के वीर पूरी दुनिया में क्या हैसियत रखते है.
आज से 99 साल पहले इजरायल का जब कोई वजूद भी नहीं था. तब भारत के वीर जवानों ने इस देश के लिए लिए अपना खून बहाया था. आज के इजराय़ल के सात शहरों में एक और तब के हाइफा में भारतीय सैनिकों ने साबित किया कि जंग हथियारों से नहीं शौर्य से जीती जाती है.
एक तरफ घोड़ो पर सवार हमारी सैनिक थे जिनके हाथो में सिर्फ तलवार और भाले थे और सामने थी ताकतवर सेना जिसके पास तलवार और भालों का जवाब देने के लिए मशीनगन थी लेकिन भारतीय सेना के जवानों के पास हौसला था. सामने से गोलियां चलती रहीं और हमारी सेना के जवान गोलियों को चीरते हुए आगे बढते रहे.
इजरायल के शहर हैफा की आजादी के लिए आज से 99 साल पहले 44 भारतीय जवानों ने अपनी कुर्बानी दी थी. उन्ही की कुर्बानी की याद में स्मारक बनाया गया है. गुलाबी रंग की शर्ट और लाइट ब्राउन कलर की पैंट और उसी रंग की मोदी जैकेट में मोदी ने .भारतीय समयानुसार 12.40 मिनट पर भारत के वीर शहीदो को श्रद्धांजलि दी.
प्रधानमंत्री मोदी के बाद इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने भी भारत के इन वीर जवानों को श्रद्धांजलि दी. इसके बाद मोदी ने विजिटर बुक में इस स्थल के बारे में कुछ लिखा. दरअसल ये परंपरा का हिस्सा है.
जिस हाइफा के लिए 99 साल पहले अंग्रेजो ने जर्मनी और तुर्की की सेना के साथ युद्द किया और भारतीय जवानों ने बलिदान दिया. दरअसल वो हाइफा शहर आज इजराइल के सात शहरों में तीसरा सबसे बड़ा शहर है. क्षेत्रफल के लिहाज से इजरायल में सबसे बड़ा शहर येरूशेलम उसके बाद तेल अवीव और फिर हाइफा का नंबर आता है.
हाइफा का  कुल एरिया करीब 64 स्क्वायर किलोमीटर है और यहा की आबादी है करीबन 2 लाख 80 हजार. इस शहर की आबोहवा बेहद खूबसूरत है. आपको जानकर हैरानी होगी कि हाइफा में ही दुनिया के सबसे ज्यादा उम्र के शख्स इजरायल क्रिस्टल रहते हैं जिनकी उम्र इस वक्त 113 साल 3 महीने की हैं.
साल 1914 से 1918 के बीच चल रहे प्रथम विश्वयुद्द के आखिर की है. प्रथम विश्व युद्ध के दौरान तुर्की और जर्मनी की सेना के खिलाफ अंग्रेज लोहा ले रहे थे. करीब 400 साल से इस इलाके पर तुर्की का कब्जा था. तारीख थी 23 सितंबर 1918 ऑटोमन यानी उस्मानी तुर्कों की सेनाओं ने हैफा पर कब्जा कर लिया था और वो यहा के यहूदियों पर अत्याचार कर रहे थे.
अंग्रेजों ने इस इलाके को तुर्की के कब्जे से अलग करना चाहा लेकिन ये इतना आसान नहीं था. आधुनिक हथियारों से लैस तुर्की और जर्मनी की सेना को कैसे हराया जाए ये बड़ा सवाल था. तभी अंग्रेजों के भारत के वीर जवानों की याद आई. भारत उस समय अंग्रेजों के अधीन था.
भारत की तीन रियासतों जोधपुर, मैसूर और हैदराबाद के घुड़सवार दस्ते को हैफा की जंग ए आजादी के लिए चुना गया. लेकिन हैदराबाद दस्ते में मुस्लिम जवानों के होने की वजह से उन्हें  युद्ध की बजाए दूसरे कामों में लगाया गया. अंग्रेजों को डर था कि हैदराबाद के मुस्लिम सैनिक तुर्की की खलीफा सेना के खिलाफ युद्ध लड़ने से पीछे हट सकती है. लिहाजा जोधपुर और मैसूर की सेना युद्ध के मैदान में उतरी.
(वीडियो में देखें पूरा शो)
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