नई दिल्ली: अक्सर विशाल वृट वक्ष की छाया में बाकी पेड़ों की कोई बिसात नहीं होती, भले ही समाज के लिए उनका योगदान किसी मायने में वट वृक्ष से कम ना हो. गांधी, भगत सिंह, आजाद ऐसे ही वट वृक्ष हैं जिनकी मूर्तियां देश के हर कौने में हैं और तमाम बड़े बड़े बलिदानी उस दौर की पुलिसिया रिपोर्ट्स की फाइलों में ही दबकर रह गए.
महाराष्ट्र के चापेकर बंधुओं की कहानी कम वीरता और बलिदान की नहीं, लेकिन उन्हें महाराष्ट्र से बाहर जानने वाले गिनती के लोग ही मिलेंगे. ये तो बहुत ही कम लोगों को पता होगा कि आज जो घर घर में सत्यनारायण का कथा होती है, उसका मौजूदा स्वरूप इन्हीं चापेकर बंधुओं के पिता हरी चापेकर ने 1877 में रचा था, स्कंद पुराण के आधार पर ये कथा रची गई थी.
काफी अमीर परिवार था हरि चापेकर के पिता विनायक चापेकर का. बाजीराव की राजधानी पुणे के पास चिंचवाड़ के रहने वाले विनायक चापेकर के एक एक करके उनके कई बिजनेस फेल हो गए. एक तो बिजनेस फेल होना, दूसरे गुलामी की छाया, हरि चापेकर ने कीर्तन करना शुरू कर दिया, पहले कुछ साथी लिए, बाद में बेटों को भी सिखा दिया. इधर उनके पिता और बाकी परिवार गरीबी में काशी और इंदौर जैसे शहरों में रहने चला गया.
हरि चापेकर के पिता ने उनको म्यूजिक केवल शौक के लिए सिखाया था. आज उसी को उन्होंने गृहस्थी चलाने का जरिया बना लिया. साथ ही भगवान के भजनों का कीर्तन करते हुए वो दूसरी ही दुनियां में पहुंचने लगे. तीनों बेटे दामोदर चापेकर, बालकृष्ण चापेकर और वासुदेव चापेकर ऐतिहासिक धार्मिक कथाओं के साए में पलने बढ़ने लगे. इसका खासा असर उन पर हुआ, वो फिर से स्वतंत्र राज्य के बारे में सोचने लगे, अंग्रेजों से मुक्ति के उपाय सोचने लगे. इस दौरान वो लोकमान्य तिलक के संपर्क में भी आए. तिलक से मिलते ही उनका पहला मिशन बन गया देश को आजाद करवाना.
दामोदर पंत का शुरूआती रुझान सैनिक बनने का था, सैनिक भर्ती में अंग्रेजों का रवैया देखकर उन्होंने ये इरादा त्याग दिया. न्यूयॉर्क टाइम्स ने इसी वजह को उनकी अंग्रेजों के प्रति नफरत को बताया था. हालांकि वांशिगटन पोस्ट उन्हें वकील लिखता है. लोकमान्य तिलक की प्रेरणा से उन्होंने एक व्यायाम मंडल बनाया और उसके जरिए युवकों को जोड़ने लगे और अंग्रेजों के खिलाफ माहौल बनाने में लग गए.
एक दिन मुंबई में क्वीन विक्टोरिया के पुतले पर दामोदर चापेकर ने तारकोल पोतकर उसके गले में जूतों की माला डाल दी. चापकेर बंधुओं के खिलाफ चार्जशीट में भी इस घटना का जिक्र किया गया था. तिलक के आव्हान पर उन्होंने पूना में 1894 से शिवाजी उत्सव और गणेशोत्सव की परम्परा शुरू की और शिवाजी श्लोक और गणेश श्लोकों के जरिए वो युवाओं में इस देश की परम्पराओं के प्रति अलख जगाने का काम करने लगे.
शिवाजी श्लोक कहता था, भांड की तरह शिवाजी की वीरता की कहानियों को सुनने सुनाने से कुछ नहीं होगा, आवश्यकता है कि शिवाजी और बाजीराव की तरह तलवार और ढाल उठाकर मैदान ए जंग में उतरा जाए. जबकि गणेश श्लोक में धर्म और गाय की रक्षा की बात की गई, अंग्रेजों से ना लड़ने वालों को नपुंसक तक करार दिया गया. धीरे धीरे चापेकर बंधु युवाओं के बीच लोकप्रिय हो रहे थे, लेकिन अब वो गुप्तचरों और भारतीय भेदियों के जरिए अंग्रेजों की नजर में भी आने लगे थे.
इधर अचानक से पुणे प्लेग की चपेट में आ गया, शुरूआत में ही अंग्रेजी प्रशासन ने ऐहितयात भरे कदम नहीं उठाए और जब तक कोई एक्शन लिया जाता 896 लोगों की मौत हो चुकी थी. आधा पुणे खाली हो चुका था, भारतीयों में इससे काफी रोष था. इधर 22 जून 1897 को क्वीन विक्टोरिया के राज्याभिषेक की गोल्डन जुबली थी, जिसे पूरी दुनियां के हर उस शहर में मनाने का आदेश दिया गया, जहां अंग्रेजों की सत्ता थी. पुणे में भी अंग्रेजों का ही राज था, लेकिन बॉम्बे गर्वनर के हाथ पांव फूले हुए थे, उसने फौरन एक प्लेग रोकथाम कमेटी बनाई और ब्रिटिश आईसीएस ऑफिसर डब्ल्यू सी रैंड को प्लेग कमिश्नर नियुक्त कर उसे 22 जून तक हालात से निपटने को कहा.
शुरूआत में लगा भी कि रैंड ये काम तरीके से करेगा, उसकी गाइडलाइंस में महिला कर्मचारियों को ही घर के अंदर भेजने, धार्मिक स्थानों और मान्यताओं के सम्मान करने जैसी बात लिखी थी, लेकिन हकीकत में कुछ और ही हो रहा था. खुद गांधीजी के राजनीतिक गुरू गोपाल कृष्ण गोखले ने अपनी लंदन यात्रा के दौरान आरोप लगाया था कि प्लेग के दौरान तलाशी करते वक्त सैनिकों ने दो महिलाओं के साथ रेप किया, जिसमें से एक ने लोकलाज से सुसाइड कर ली.
तिलक ने भी लिखा कि इतना संवेदनशील मसला था, जो रैंड की तरह एक दमनकारी ऑफिसर को नहीं सौंपना चाहिए था. जबकि दामोदर चापेकर ने कोर्ट मे दिए बयान में कहा, प्लेग के सर्वे के दौरान महिलाओं के बदतमीजी की गई, घर के अंदर पुरुषों ने जूते पहनकर जबरन प्रवेश किया, यहां तक मंदिरों में भी वो जूते पहनकर घुसे, मूर्तियां उखाड़कर फैंक दी गई. कितने ही घर तोड़ दिए गए. एक तरह से प्लेग से ज्यादा सरकारी कर्मचारियों, अंग्रेजों ने ज्यादा आतंक फैला दिया. ये सब प्लेग सर्वे के बहाने लूटपाट में लगे हुए थे. हालांकि वो लोगों को समझाने की कोशिश करते तो सबकुछ आसान होता, लेकिन वो तो जैसे अवैध कब्जे हटाने की मुहिम में थे, लोगों को ये काफी नागवार गुजरा.
अंग्रेजों के प्रति नफरत आग में बदल गई, पूरे पुणे में कमिश्नर रैंड को सबक सिखाने की बात चलने लगी. तब चापेकर बंधुओं ने रैंड को सबके सिखाने का जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली, उनको पता था कि बचने का कोई सवाल ही नहीं है, लेकिन ऐसे नारकीय जीवन जीन से तो बेहतर एक वीर की मौत मरना था, अपनी जन्मभूमि की आजादी की खातिर मरना था. रैंड पर हमले का दिन तय गया 22 जून, यानी क्वीन विक्टोरिया के गोल्डन जुबली फंक्शन का दिन. पूरे पुणे में तब तक 2091 लोग प्लेग मर चुके थे और उन सभी के घर वाले अपने घरवालों की लाशों पर मातम कर रहे थे और पुणे में अंग्रेज बड़ा जलसा करके विक्टोरिया का गोल्डन जुबली मनाएं, ये किसी को मंजूर नहीं था.
गर्वनमेंट हाउस पर 22 जून 1897 की रात जलसा था, प्लेग कमिश्लर रैंड को भी जाना था. रास्ते में एक पीले बंगले के पास दामोदर और बालकृष्ण, दोनों चापेकर भाइयों ने पोजीशन ले ली. दोनों के पास पिस्तौल थी और बैकअप प्लान के लिए तलवार और कुल्हाड़ी तक ले ली गई. रैंड की बग्घी को देखकर दामोदर ने कोड में आवाज लगाई- गोंडया आला रे और तान दी पिस्तौल, सीधे गोली उतार दी रैंड के सीने में, उधर बालकृष्ण ने पीछे से गोली चलाई जो रैंड की सिक्योरिटी में लगे लैफ्टिनेंट आयर्स्ट को लगी. आयर्स्ट की वहीं पर मौत हो गई और रैंड तीन दिन बाद हॉस्पिटल में मर गया. पूरे शहर में कोहराम मच गया. फौरन से सारे गुप्तचर काम पर सगा दिए गए.
किसी ने रात में रैंड को गोली मारते नहीं देखा, लेकिन दो लोगों को इस घटना की जानकारी थी, दोनों भाई थे, उन्हें द्रविण भाई कहा जाता है. गणेश शंकर द्रविण और रामचंद्र द्रविण. जब पुलिस कमिश्नर ने इस घटना का सुराग बताने वाले को बीस हजार के इनाम का ऐलान किया तो उन्होंने उनाम के लालच में पुलिस को बता दिया कि ये लोग रैंड की हत्या की साजिश रच रहे थे. तीनों चापेकर भाइयों के अलावा इस योजना में महादेव विनायक रानाडे और खांडो विष्णु साठे भी शामिल थे. साठे नाबालिग था, इसलिए केवल दस साल की सजा हुई बाकियों को फांसी दे दी गई. हालांकि कुल 31 लोगों को गिरफ्तार किया गया था. सबसे पहले दामोदर चापेकर को पकड़ लिया गया. बाद में तिलक उनसे मिलने आए और उनको एक गीता भेंट की, जो फांसी के तख्ते तक उनके हाथ में थी.
इधर पुलिस ने बाकी भाइयों की गिरफ्तारी के लिए चापेकर बंधुओं को कुछ रिश्तेदारों को गिरफ्तार करके प्रताड़ित करना शुरू कर दिया तो बालकृष्ण चापेकर ने सरेंडर कर दिया. लेकिन छोटा भाई बासुदेव उनका सुराग देने वाले गद्दारों द्रविण भाइयों को सबक सिखाना चाहता था. 8 फरवरी 1899 को बासुदेव और उनके मित्र महादेव गोविंद रानाडे ने उन गद्दारों को ढूंढ ही निकाला और उनको वहीं मौत के घाट उतार दिया. उसी शाम उन्होंने पुलिस कांस्टेबल रामा पांडु को गोली मारने की कोशिश की, लेकिन पकड़े गए. तीनों चापेकर भाइयों और रानाडे को यरवदा जेल में फांसी पर लटका दिया गया.
ब्रिटिश सरकार ने तिलक को भी नहीं छोड़ा, तिलक पर आरोप था कि उन्होंने चापेकर बंधुओं को रैंड की हत्या के लिए उकसाया. इसको साबित करने के लिए तिलक के अखबार केसरी की कुछ प्रतियां भी पेश की गईं, जिसमें प्लेग कमिश्नर के तौर तरीकों का विरोध किया गया था. तिलक पर देशद्रोह (सैडीशन) का आरोप लगाया गया. देखा जाए तो ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाया गया ये पहला सैडीशन का केस था, जो तिलक जैसे एक नेशनल लीडर पर लगाया गया था. तिलक को देशद्रोह के आरोप में जेल भेज दिया गया, पूरे 18 महीने के लिए.
आज भले ही सत्यनारायण की कथा पूरी दुनियां के हर हिंदू घर में कही जाती है, लेकिन चापेकर बंधुओं के पिता हरि चापेकर को कोई याद नहीं करता. उसी तरह अपनी अंग्रेजों के खिलाफ खुली बगावत करके फांसी पर चढ़ने वाले, लाखों करोड़ों जनता में देशभक्ति और स्वाभिमान की अलख अपने शिवाजी और गणेश महोत्सवों के जरिए जगाने वाले चापेकर बंधुओं को भी कितन लोग जानते हैं. वो बलिदान भी उन्होंने तब किया जब ना गांधी थे, ना भगत सिंह और ना बोस.