नई दिल्ली: देश में विवादित मुद्दों पर छिड़ी बहस के बीच आरएसएस के कोर ग्रुप में शामिल संघ के राष्ट्रीय सह सर कार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने खुलकर अपनी बात सामने रखी है. उन्होंने एक मैगजीन के साथ तमाम विवादित मुद्दों पर अपनी बात रखते हुए कहा कि “स्वामी विवेकानंद और वीर सावरकर दोनों हिंदुत्ववादी थे और दोनों ही मांसाहारी के खिलाफ नहीं थे, संघ ने भी कभी शाकाहार के आंदोलन का बात नहीं की है. गाय को बचाने के नाम पर हिंसा का हिमायती भी नहीं है संघ और ना हम कोई एकदम दक्षिणपंथी है.”
इतना ही नहीं हॉसबोले ने ये भी कहा कि इस देश में सेकुलर का अर्थ अब एंटी हिंदू होना हो गया है. कर्नाटक के रहने वाले दत्तात्रेय होसबोले कभी युवावस्था में फिल्में बनाने की तैयारी कर रहे थे, लेकिन इमरजेंसी में गिरफ्तारी के बाद काफी दिनों उन्हें जेल में रहना पड़ा. उसके साथ ही उनके जीवन की दिशा बदल गई और वो राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के लिए सब कुछ छोड़कर प्रचारक बन गए.
परिवार को छोड़कर ऐसे निकले दत्तात्रेय कि फिर आम घरेलू जिंदगी में फिर नहीं लौटे, कई सालों तक विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) में राष्ट्रीय संगठन मंत्री का दायित्व निभाने के बाद पिछले कई सालों से हॉसबोले संघ के उन गिनती के नेताओं में है, जो आज संघ की कोर रणनीति तय करते हैं. हाल ही में ओपन मैगजीन के लिए उन्होंने लेखिका अद्वैता काला से संघ से जुड़े अहम मुद्दों पर दिल खोलकर बात की.
उनके मुताबिक सेकुलरिज्म का कांसेप्ट यूरोप से आया, जहां चर्च पॉवरफुल थीं और उनका स्टेट से झगड़ा था। जबकि भारत में कोई भी धार्मिक संस्था इतनी पॉवरफुल रही नहीं और भारत में पहले से ही सभी पंथों के विचारों को शुरू से ही जगह मिलती रही है. उन्होंने एक विचार तय किया कि इंडिया ऐसा होगा, भारत में विविधता रही है जहां आइडिया ऑफ इंडिया को लेकर कई विचार रहे हैं. भारत में सेकुलरिज्म का मतलब एंटी हिंदू होना और अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण हो गया है। सरकार निरपेक्ष रहनी चाहिए, उसको सबके साथ बराबरी की व्यवहार करना चाहिए.
राइट विंग और लेफ्ट विंग के अंतर पर उन्होंने कहा कि ना तो कोई पूरी तरह लेफ्ट विंग हो सकता है और ना पूरी तरह राइट विंग. कोई भी विचार पूरी तरह सम्पूर्ण नहीं है और मुझे खुद को दक्षिणपंथी कहलाना पसंद नहीं. ये भेदभाव पूरी तरह आर्टीफीशियल और अनसाइंटिफिक है. ऐसे ही जब कोई खुद को हिंदू नेशनलिस्ट कहता है तो इसका मतलब कल्चरल है धार्मिक नहीं. वो कल्चर जिसके चलते गांधीजी राम भजन गाते हैं, वो कल्चर जिसके चलते कांग्रेस के अधिवेशनो में वंदेमातरम होता आया है. तो क्या ये सब फंडामेंटलिस्ट थे.
मांसाहार के मुद्दे पर भी उन्होंने कहा कि ये गलत तथ्य है कि संघ शाकाहार को बढ़ावा दे रहा है, गाय का मुद्दा भावनाओं से जुड़ा है, हालांकि संघ प्रमुख ने भी स्पष्ट कर दिया है कि गाय को बचाने के नाम पर हिंसा स्वीकार नहीं. वैसे भी हिंदुत्व के पुरोधा स्वामी विवेकानंद और वीर सावरकर तक मांसाहार के विरोध में नहीं गए.
पर्सनल फ्रीडम के नाम पर उन्होंने कहा कि सोसायटी की चिंता तो करनी होगी, सब एक जैसा नहीं सोचते. सभी तो गांधी जी और विवेकानंद जी नहीं हो सकते. आप किसी नाइट क्लब के माहौल में कम कपड़े पहनते हैं तो चूंकि सभी वैसे हैं, बाहरी सोसयटी पर कोई असर नहीं. लेकिन पर्सनल फ्रीडम के नाम पर आप स्लट वॉक करेंगे, तो शायद सोसायटी के अलग अलग विचारों वाले लोगों को अच्छा ना लगे. संविधान ने भी पर्सनल फ्रीडम पर कुछ तो प्रतिबंध लगाए ही हैं.
योगी को सीएम चुने जाने के मसले पर भी दत्तात्रेय ने खुलकर उनका साथ दिया, बोले कि वो पांच बार के एमपी हैं, जब वो वोट से चुने जा सकते हैं तो सीएम क्यों नहीं हो सकते? उनको ऊपर तो कोई निजी जिम्मेदारी भी नहीं है, पूरा वक्त प्रदेश के लिए दे सकते हैं. दलाई लामा भी तो प्रशासनिक हैड हैं और एसजीपीसी के लोग भी तो अकाली सरकार में मंत्री बने हैं.