नई दिल्ली: 2013 की बात है, एक क्रांतिकारी की अस्थियां 70 साल बाद जापान से भारत लाई जा रही थीं. ना नेशनल मीडिया में किसी ने कोई खास तवज्जो दी और ना उनके शहर पश्चिम बंगाल के चंदन नगर में उनकी अस्थियां पहुंची. कोई भी बड़ा चेहरा भी इस मौके पर वहां नहीं पहुंचा. ना पीएम ने तवज्जों दी और ना ही सीएम ने. अंत में उनकी राख हुगली में प्रवाहित कर दी गई, न तो किसी चैनल की सुर्खियां बनीं, ना पीएम ने तबज्जो दी और ना सीएम को पता चला. चंदन नगर के मेयर जापान से उन्हें लेकर आए थे.
आप देश के बच्चे-बच्चे से पूछ लीजिए, बचपन से पढ़ते-सुनते आते हैं कि जापान के रेनकोजी मंदिर में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अस्थियां रखी हैं, भले ही कोई अब भी नहीं मानता कि उनकी मौत हो गई है, लेकिन एक दूसरे ‘बोस’ की अस्थियां उसी जापान से आती हैं, इलेक्ट्रोनिक मीडिया के दौर में ना कोई खबर बनती है ना कोई विवाद.
बड़े क्रांतिकारी षडयंत्र में सूत्रधारों में से एक थे रास बिहारी बोस
ये एक मिसाल भर है कि देश कैसे एक जैसे कद वाले दो व्यक्तियों के साथ अलग-अलग व्यवहार करता है और ये व्यवहार करने की वजह हैं इतिहासकार और राजनेता, जिन्होंने अपनी मर्जी से किसी के भी कद को उठाकर महामानव बना दिया और किसी महामानव को आने वाली पीढ़ियों की जानकारी में भी ना आ पाए, ऐसे इंतजाम कर दिए.
जापान से सुभाष चंद्र बोस का नाता हमारे देश में सबको पता है लेकिन आप ये जानकर चौंक जाएंगे कि जापान में इतिहास पढ़ने-पढ़ाने वाले लोगों और राजनेता-राजनयिकों को छोड़ दिया जाए तो सुभाष चंद्र बोस को जानने वाले उंगलियों पर हैं और एक दूसरे बोस को आज हर जापानी घर में जाना जाता है, और जानने की वजह भी खासी हैरतअंगेज है.
आजाद हिंद फौज की नींव रखी
वो क्रांतिकारी जिन्होंने आजाद हिंद फौज की नींव रखी, उसका झंडा और नेतृत्व सुभाष चंद्र बोस के हवाले किया, उसको एक खास किस्म की करी को ईजाद करने के लिए सारे जापान में जाना जाता है. वो थे रास बिहारी बोस. 20वीं सदी की शुरुआती दशकों में जितने बड़े क्रांतिकारी षडयंत्र हुए थे, उन सबके सूत्रधारों में से एक थे रास बिहारी बोस, गदर क्रांति से लेकर अलीपुर बम कांड केस तक, गर्वनर जनरल हॉर्डिंग की हत्या की प्लानिंग से लेकर मशहूर क्रांतिकारी संगठन युगांतर पार्टी के उत्तर भारत में विस्तार तक.
जापान में उनकी ‘क्रांति’ पर भारी पड़ गई उनकी ‘करी’
इंडियन करी के नाम से मशहूर ‘करी’ के क्रेज को आप जापान में इस बात से समझ सकते हैं कि हर रेस्तरां में ‘इंडियन करी’ नाम से डिश उनके मेन्यू में होती है. रास बिहारी बोस ने इंडियन करी को कैसे ईजाद किया इसकी कहानी भी खासी दिलचस्प है लेकिन पहले आपको ये समझना होगा कि क्यों करना पड़ा रास बिहारी को जापान का रुख और कैसे बन गए वो जापान के दामाद..!
आप भारत के मशहूर क्रांतिकारियों के बारे में पढ़ते होंगे कि किसी ने उस कमांडर को गोली मारी, किसी ने उस जनरल की हत्या की, किसी ने ट्रेन डकैती डाली, किसी ने वहां बम फोड़ा. रास बिहारी बोस ने अपने समय का सबसे दुस्साहस भरा काम किए, अगर बाकी क्रांतिकारियों की घटनाओं से तुलना करेंगे तो पाएंगे ये शायद सबसे हिम्मत का काम था. गर्वनर जनरल की हैसियत उस वक्त वही होती थी जो आज प्रधानमंत्री की है, यानी देश का सर्वेसर्वा.
गर्वनर जनरल की हत्या करने की ही योजना बनाई
रास बिहारी बोस ने उस वक्त के गर्वनर जनरल की हत्या करने की ही योजना बना ली थी, उस लॉर्ड हार्डिंग की जो देश की राजधानी कोलकाता से दिल्ली लाया था. उस वक्त रास बिहारी बोस देहरादून की फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट में काम कर रहे थे, केमिकल्स के साथ उनका लगाव इस कदर था कि उन्होंने क्रूड बम बनाना सीख लिया था. पश्चिम बंगाल में अलीपुर बम कांड में उनका नाम आने के बाद वो देहरादून चले आए थे, लेकिन देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा अभी कम नहीं हुआ था.
‘दिल्ली कांस्पिरेसी’ का मास्टर माइंड थे रास बिहारी बोस
रास बिहारी बोस ने लॉर्ड हॉर्डिंग की हत्या बम से करने की सोची, दिन चुना 23 दिसंबर 1912 यानी वो दिन जब गर्वनर जनरल लॉर्ड हार्डिंग को नई राजधानी दिल्ली में पहली बार दिल्ली आना था, उसके जोरदार स्वागत की तैयारियां पूरी दिल्ली में कर ली गई थीं. रास बिहारी ने 25 नवंबर से 31 दिसम्बर तक कुल 37 दिन की छुट्टियां फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट से पहले ही ले ली थीं.
ताकि इस क्रांतिकारी घटना की योजना बेहतर तरीके से बनाई जा सके. हालांकि कोलकाता से हटाकर दिल्ली राजधानी बनाने का ऐलान 12 दिसम्बर को ही कर दिया गया था. लॉर्ड हॉर्डिंग ने बड़े ही भव्य तरीके से अपनी दिल्ली यात्रा की योजना बनाई थी, वो खुद हाथी पर बैठकर शहर में घुसा. रास बिहारी को अंदाज नहीं था कि वो हाथी पर बैठकर आएगा.
बंगाल के एक युवा क्रांतिकारी बसंत कुमार विश्वास को बम फेंकने की जिम्मेदारी दी गई, वो रास बिहारी से ज्यादा मजबूत था. हाथी के ऊपर तक बम वही फेंक सकता था, रास बिहारी बोस ने उसे बम दे दिए. चांदनी चौक से जब गर्वनर जनरल की सवारी निकली, पांच सौ पुलिस वाले वर्दी में और 2500 बिना वर्दी के थे. ये दोनों उस वक्त वहीं थे, बम फेंका भी, जोरदार विस्फोट हुआ, अफरातफरी मच गई.
बहुत देर तक लोगों ने मान लिया कि हॉर्डिंग की मौत हो गई है, लेकिन वो केवल घायल हुआ, बच गया, लेकिन उसके हाथी का महावत मारा गया. इसी अफरातफरी में दोनों बच कर निकल भागे, रास बिहारी ने फौरन रात की ट्रेन देहरादून के लिए ली और जल्द ही अपना ऑफिस भी ज्वॉइन कर लिया. महीनों तक अंग्रेजी पुलिस पता नहीं कर पाई कि कौन था मास्टर माइंड, जो खुद उनका मुलाजिम था, एक क्लर्क. इतिहास में इस केस को ‘दिल्ली कांस्पिरेसी’ के नाम से जाना जाता है.
1915 में जापान चले गए रास बिहारी
दिलचस्प बात थी कि जब कुछ महीने के बाद लॉर्ड हॉर्डिंग छुट्टियां मनाने देहरादून पहुंचा तो रास बिहारी बोस ने उनके स्वागत में एक कार्यक्रम भी आयोजित किए और दिल्ली में बम से बचने की बहादुरी का बखान भी किया. इधर इंगलैंड के ऊंचे हलकों में खौफ फैल गया, अब बात यहां तक पहुंच गई कि गर्वनर जनरल तक की हत्या की साजिश होने लगी.
इधर कुछ क्रांतिकारी गिरफ्तार हो गए, बसंत विश्वास, अवध बिहारी, अमीर चंद आदि को फांसी दे गई. रास बिहारी बोस को खतरा दिखा, वो देहरादून से निकल गए और अज्ञातवास में अपने होम टाउन चंदन नगर और बनारस के बीच आते जाते रहे. इधर प्रथम विश्व युद्ध छिड़ गया, किसी की सलाह पर वो 1915 के अप्रैल में वो जापान निकल गए.
गिरफ्तारी से बचने बदलने पड़े थे 17 ठिकाने
जापान उन दिनों कई देश के क्रांतिकारियों की शरणगाह बना हुआ था, उनकी मुलाकात चीन के क्रांतिकारी नेता सन यात सेन से हुई. कई भारतीयों से भी उनकी मुलाकात हुई जो देश को आजाद देखना चाहते थे. लेकिन अंग्रेजी सरकार बुरी तरह उनके पीछे थी, उनको पता चला गया कि रास बिहारी बोस टोक्यो में हैं.
जापान इंग्लैंड के मित्र देशों में था, जापान सरकार से अंग्रेजों ने रास बिहारी को सोंपने की मांग की. लेकिन एक ताकतवर जापानी लीडर ने उन्हें अपने घर में छुपाया, वो अंग्रेजों से चिढ़ता था, एक दिन पुलिस उसके घर पहुंची तो पिछले गेट से उसने दो कारों को तेजी से बाहर निकाला, पुलिस ने पीछा किया और रास बिहारी बोस आगे के रास्ते से निकल गए. कुल 17 ठिकाने जापान में बदलने पड़े थे रास बिहारी बोस को.
रास बिहारी को इस बार आम जापानियों ने बचाया, उनको नाकामुराया बेकरी मालिक के घर में छुपा दिया. वो महीनों तक वहां छुपे रहे. बाहर निकलना मुमकिन नहीं था, ना बाहरी दुनियां से कोई रिश्ता था. ऐसे में वो बेकरी के लोगों और बेकरी मालिक के परिवार के साथ घुलमिल गए, बेकरी में काम करने लगे. बेकरी के लोगों को इंडियन डिशेज बनाना सिखाने लगे, इसी दौरान उन्होंने एक अभिनव प्रयोग किया और एक जापानी डिश को भारतीय शैली में बनाया, जो सबको काफी पसंद आई. उसे इंडियन करी नाम दिया गया.
धीरे-धीरे वो इतनी मशहूर हो गई कि आज जापान के हर रेस्तरां में मिलती है. सबसे पहले नाकामुराया बेकरी ने ही उसे अपने रेस्तरां में 1927 में इंडियन करी के नाम से लॉन्च किया था. बाद में जापान के रंग में ही रंग गए थे रास बिहारी बोस, उनकी संस्कृति, भाषा, व्यवहार को अपना लिया था.
शिप में आग लगने के बाद बदल गई जिंदगी
इधर जापान में एक ब्रिटिश शिप में आग लग गई, जिसमें रास बिहारी से जुड़े कागजात भी जलकर खाक हो गए. जापान सरकार ने भी डिपोर्टेशन का ऑर्डर वापस ले लिया, अब रास बिहारी जापान में आजादी से घूमने के लिए आजाद थे. लेकिन बेकरी के मालिक ने उनसे अपनी बेटी तोशिको से शादी करने का आग्रह किया. जो कई सालों से तहखाने में रह रहे रास बिहारी के लिए खाना लाती थी, उनकी जरूरतों का ख्याल रखती थी.
एक अनजाना सा रिश्ता उस जापानी लड़की से उनका जुड़ गया था. फिर शादी के बाद अगले कुछ सालों तक रास बिहारी घर ग्रहस्थी में मशगूल हो गए, दो बच्चे हुए. अचानक1925 में उनकी बीवी की न्यूमोनिया से मौत हो गई. तोशिका के शव के पास बैठकर उनकी आत्मा की शांति के लिए संस्कृत के श्लोक पढ़ते-पढ़ते रास बिहारी बोस मोह माया के भंवर से निकल गए. एक बार फिर बीड़ा उठाया, देश को आजाद कराने का.
देश को आजाद कराने ऐसे बनाई रणनीति
रास बिहारी ने टोक्यो में इंडिया क्लब बनाया, कैसे देश को गुलामी से मुक्ति मिले इस पर विचार करना शुरू कर दिया. भारतीय सैनिकों के विदेशी युद्धों में इस्तेमाल करने पर जमकर रास बिहारी बोस ने विरोध किया और जापानी रेडियो और अखबारों में लिखा, अमेरिका के अखबारों में भी लिखा. तब तक देश में गांधीजी सबसे बड़े नेता के तौर पर उभर चुके थे, रास बिहारी ने गांधी जी का पेपर ‘यंग इंडिया’ जापान में मंगाना शुरू कर दिया, लेकिन उनको लगा कि वो संत हैं, वो बीते कल के नेता हैं, आज और आने वाले कल का नेता उन्हें एक दूसरे बोस में दिखाई दिया, सुभाष चंद्र बोस.
दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया, मोहन सिंह ने जापानियों की मदद से इंडियन नेशनल आर्मी बनाई, फिर से भारत को आजाद करने की आवाजें उठने लगीं, तो रास बिहारी ने भी साउथ ईस्ट एशिया के देशों के दौरे करने शुरू कर दिए, भारत की आजादी की जंग के लिए सपोर्ट जुटाने लगे. थाइलैंड जापान के कब्जे में था, बैंकाक में तय किया गया कि मोहन सिंह की आईएनए को इंडियन इंडिपेंडेंस लीग के अधीन लाया जाए और रास बिहारी बोस को इंडियन इंडिपेंडेंस लीग का प्रेसीडेंट बना दिया गया.
जिसका काम था आजादी के लिए दुनियां भर से समर्थन और मदद लेना. यानी सुभाष चंद्र बोस के लिए एक सैनिक यूनिट और पॉलिटिकल यूनिट की आधारशिला उनके वहां आने से पहले ही रास बिहारी बोस और मोहन सिंह ने रख दी थी. कुल 1.2 लाख सदस्य बन चुके थे और साउथ ईस्ट एशिया के देशों से पचास हजार भारतीय सैनिक उसमें शामिल हो चुके थे. इतने दिनों तक उनके सैनिकों के खर्चे उठाना आसान काम नहीं था.
जब नेताजी बोस भारत छोड़कर जर्मनी पहुंचे तो रास बिहारी बोस को लगा कि सुभाष चंद्र बोस से बेहतर कोई करिश्माई नेतृत्व नहीं हो सकता. वेटरन बोस ने यंग बोस को आमंत्रित किया. बैंकाक में हुई लीग की दूसरी कॉन्फ्रेंस में रास बिहारी बोस ने नेताजी बोस को आमंत्रित करने का फैसला लिया.
1943 में नेताजी से मिले
जर्मनी से यू बोट में बैठकर 20 जून 1943 को सुभाष चंद्र बोस टोक्यो पहुंचे. जापान पहुंचे तो रास बिहारी बोस उनसे मिले, रास बिहारी बोस को सुभाष चंद्र बोस से काफी आशाएं थीं, दोनों बोस थे, बंगाली थे, क्रांतिकारी थे, एक दूसरे के प्रशंसक थे. 5 जुलाई को वो सिंगापुर पहुंचे, नेताजी का जोरदार स्वागत हुआ और उसी दिन रास बिहारी बोस ने लीग और इंडियन नेशनल आर्मी की कमान नेताजी को सोंप दी, और खुद को सलाहकार के रोल तक सीमित कर लिया.
वैसे भी उम्र उन पर अब हावी होने लगी थी, यहां से नेताजी बोस की असली लड़ाई शुरू होती है. रास बिहारी बोस उसके बाद उनका ज्यादा साथ नहीं दे पाए क्योंकि लंग इनफेक्शन के चलते उनको हॉस्पिटल में एडमिट होना पड़ा था, लेकिन जापान में अपने नाम और रिश्तों के जरिए सुभाष चंद्र बोस की जो मदद हो सकती थी, उन्होंने की. जापान सरकार ने जापान के इस भारतीय दामाद को जापान के दूसरे सबसे बड़े अवॉर्ड ‘ऑर्डर ऑफ दी राइजिंग सन’ से सम्मानित किया.
आज हालत ये है कि इतिहास विषय के अध्येताओं को छोड़ दिया जाए तो आजाद हिंद फौज के गठन में नेताजी बोस के अलावा किसी और को कोई जानता तक नहीं है, मोहन सिंह या रास बिहारी बोस के उस योगदान का जिक्र कहीं नहीं होता. किसी ने नहीं सोचा कि सुभाष चंद्र बोस कैसे विदेशी धरती पर जाकर इतनी बड़ी फौज कुछ दिनों में ही तैयार कर लेते हैं. सोचिए कितना मुश्किल हुआ होगा विदेशी धरती पर विदेशी सेनाओं से भारतीय सैनिकों को इकट्ठा करके इतनी बड़ी आजाद हिंद फौज खड़ी करना, उनका खर्चा, हथियार, वर्दी और विदेशी धरती पर राजनीतिक समर्थन जुटाना.
गिरफ्तारी से बचने शिमला चले गए
रास बिहारी बोस के खून में क्रांति थी, युवावस्था से ही वो क्रांतिकारियों के सानिध्य में आ गए थे. बंकिम चंद्र चंटर्जी की किताब आनंद मठ और विवेकानंद से प्रेरणा लेकर वो क्रांतिकारियों से जुड़ तो गए, लेकिन 1908 के अलीपुर बम कांड के बाद क्रांतिकारियों की इतनी तेजी से और बडे पैमाने पर धरपकड़ हुई कि उनका भी नाम आ गया.
वो वहां से शिमला चले गए, कसौली में एक नौकरी की, उसके बाद देहरादून आ गए. उस वक्त बाघा जतिन युगांतर पार्टी को बंगाल से बाहर विस्तार कर रहे थे, पंजाब और बंगाल उन दिनों क्रांतिकारियों के दो गढ़ थे. रास बिहारी दोनों प्रदेशों के बीच लिकं के तौर पर काम करने लगे. यूपी और बिहार में भी क्रांतिकारियों को उन्होंने युगांतर पार्टी से जोड़ा.
रास बिहारी पर 75 हजार का इनाम
अंग्रेजों ने भी बंगाल में क्रांतिकारियों की बढ़ती गतिविधियों को देखकर 1912 में राजधानी दिल्ली ले जाने की योजना बना ली और तब बना लॉर्ड हार्डिंग पर बम फेंकने का मास्टर प्लान, वो भी दिल्ली में प्रवेश के वक्त. जब लॉर्ड हार्डिंग वाला केस हुआ तो कुछ ही महीने में ब्रिटिश पुलिस को पता चल गया कि रास बिहारी मास्टर माइंड हैं, लेकिन वो अंडरग्राउडं हो गए. उनके ऊपर 75,000 रुपए का इनाम उन दिनों घोषित कर दिया.
सोचिए उसके 63 साल बाद शोले फिल्म में गब्बर सिंह पर रखा पचास हजार रुपए का इनाम उस वक्त कितना बड़ा माना गया था. इधर ‘गदर क्रांति’ का प्लान बन चुका था, भारत में गदर पार्टी की कमान रास बिहारी के कंधों पर आ गई, अमेरिका से विष्णु पिंगले और करतार सिंह सराभा उनकी मदद के लिए भारत आए. अमेरिका से भारत तक के तमाम क्रांतिकारी 1857 जैसी क्रांति करना चाहते थे. लेकिन एक गद्दार कृपाल सिंह की वजह से गदर फेल हो गया, तमाम क्रांतिकारी पकड़े गए. रास बिहारी बोस टैगोर के एक रिश्तेदार की मदद से ब्रिटिश पासपोर्ट पर जापान निकल भागे.
हालांकि इतिहास की कुछ किताबों में ये दावा किया गया है कि उनकी अस्थियों को उनकी बेटी तेस्तु हिगुची भारत लेकर आईं, अंतिम श्रद्धांजलि देने के लिए. अगर उस वक्त उनका विसर्जन नहीं हुआ और 2013 में दोबारा उन्हें लाया गया तो भी देश और मीडिया को इस साइलेंट क्रांतिकारी का सम्मान करना और याद करना तो बनता ही था. बहुत से लोग तो इस लेख को पढ़कर पहली बार रास बिहारी बोस को जानेंगे, इससे बेहतर तो जापानी हैं कम से कम जानते तो हैं, भले ही ‘करी’ की वजह से सही.