नई दिल्ली: नदियों के देश हिंदुस्तान में आज भी जिंदगी एक-एक बूंद पानी के लिए तरशती है.आप सोचेंगे हम ऐसा क्यों कह रहे हैं तो बता दें कि आज भी यहां के लोग जलती जमीन पर कोसों पैदल चलकर पानी की तलाश में दूर-दूर तक जाते हैं.
यहां ज़िंदगी पानी की तलाश में भटकती है. बचपन पानी के लिए जलती ज़मीन पर कोसों चलता है. मैं बूंद-बूंद बर्बाद होती आबादी का हिंदुस्तान. कभी मुझे सोने की चिड़िया कहा जाता था. आज मैं पानी के लिए तरसता हूं.
मेरे जिन बच्चों के हाथों में कलम और किताब होनी चाहिए वो पानी के लिए पाताल लोक में जाते हैं. जिन महिलाओं को घरों में पानी मिलना चाहिए वो पहाड़ लांघकर पानी लाती हैं. मैं हिंदुस्तान यहां खेत खलिहान बंजर होने लगे बस्तियां वीरान होने लगीं.
पर्व-त्योहार, शादी-ब्याह के मौसम मरने लगे. मैं पल-पल सिसकते गांव-कस्बों का हिंदुस्तान. मैं हिंदुस्तान. हमारे कुएं में पानी नहीं, नहर और नदियां सूख रही हैं. हैंडपंप बस लोहे का खंभा भर है. अब मैं बिन पानी सून को जीनेवाला हिंदुस्तान. ये 21वीं सदी के हिंदुस्तान की तस्वीर है.
आप जिन तस्वीरों को पाताल की तरह देख रहे हैं…वो पहाड़ों के बीच उम्मीद का गड्ढा है. गड्डे में गंदा पानी है. जिस पानी से हम और आप हाथ तक धोना नहीं चाहेंगे. उसी पानी में यहां के लोगों को जिंदगी दिखाई देती है .
प्यासे हिंदुस्तान में ये तस्वीर गुजरात के छोटा उदेपुर जिले के पावी जेतपुर गांव की है. मई के महीने में ही यहां हैंडपंप, कुएं, तालाब सब सूख चुके हैं. एक मटका पानी के लिए महिलाएं चिलचिलाती धूप में 4 किलोमीटर तक तपती ज़मीन पर चलती हैं.