नई दिल्ली: आज से करीब पांच साल पहले भ्रष्टाचार के खिलाफ देश में एक चिंगारी उठी थी. महाराष्ट्र के रालेगण सिद्धी से चलकर अन्ना हजारे दिल्ली आए थे और लोकपाल को लेकर एक जबरदस्त आंदोलन शुरू किया था. लेकिन बाद में ये आंदोलन बिखर गया. आंदोलन से अलग होकर अरविंद केजरीवाल ने एक राजनीतिक पार्टी बनाई. लेकिन मकसद वही था, भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग.
महज एक साल की पार्टी इतिहास रचते हुए दिल्ली की सत्ता पर तक पहुंची. लेकिन तब और आज के हालात में आसमान जमीन का अंतर आ गया है. पार्टी वही है, चेहरा भी वही है लेकिन हालात काफी बदल चुके हैं. नई सियासत का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी अब उन्हीं पुरानी पार्टियों की कतार में खड़ी नजर आ रही है जिसे कल तक केजरीवाल पानी पी-पीकर कोसते थे.
छोटी सी कद-काठी, साधारण सी पैट-शर्ट और आम आदमी होने का एहसास. अन्ना आंदोलन के बीच से निकले इस शख्स को देखकर लोगों को लगा कि सिस्टम से परेशान एक आम आदमी अपनी अच्छी खासी सरकारी नौकरी छोड़कर देश बदलने निकला है. गांधी टोपी लगाकर प्रदर्शनों में पुलिस की लाठियां खाता है. लोगों के लिए अपनी जिंदगी दांव पर लगाकर अनशन करता है और जमीन पर ही सो जाता है.
साल 2011 में शुरू हुए अन्ना आंदोलन के मंच पर वैसे तो चेहरे कई थे. किरण बेदी, कुमार विश्वास, जस्टिस संतोष हेगड़े, वी के सिंह और शांति भूषण जैसे कई नामचीन लोगों का जमावड़ा लगा था लेकिन कहा जाता है कि हर बड़े फैसले में अरविंद केजरीवाल की सहमति जरूरी होती थी.
लेकिन 26 नवंबर 2012 को अन्ना और केजरीवाल के रास्ते हमेशा के लिए अलग हो गए. अन्ना मूल मंत्र भ्रष्टाचार मिटाएंगे लेकिन राजनीति नहीं करेंगे का पालन करते हुए रालेगांव सिद्धि चले गए और अरविंद का मकसद बदल गया. सियासत में घूसकर भ्रष्टाचार मिटाएंगे. नई पार्टी बनाई और सत्ता संघर्ष में कूद पड़े.
26 नवंबर 2012. यही वो तारीख थी, जब राष्ट्रभक्ति और आम आदमी की ज़िंदगी बेहतर बनाने के वादे के साथ शुरू हुआ आम आदमी पार्टी का सफर. पार्टी बनाने के बाद अलग तरह की राजनीति का दावा करने वाले अरविंद केजरीवाल के दावों की हवा तब निकली, जब दो साल के भीतर उनके कई मंत्रियों को जेल की हवा खानी पड़ी. किसी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे तो किसी को रेप और फर्जीवाड़े के आरोपों के बाद जेल जाना पड़ा.
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