शहीदी दिवस: ‘मेरा रंग दे बसन्ती चोला..’ मस्ती में गाते हुए भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने देश के लिए दे दी थी जान…

नई दिल्ली: आज 23 मार्च है और आज का दिन इतिहास के पन्नों में शहीदों के नाम से लिखा गया है. दरअसल, आज ही के दिन यानि 23 मार्च 1931 को शहीदे आजम भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव ने देश की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी.
86 साल आज ही के दिन शाम 7:30 बजे अंग्रेजी हुकूमत ने भगतसिंह,राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी थी. देश के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने वाले इन शहीदों को याद करते हुए आज का दिन शहीदी दिवस के रूप में मनाया जाता है.
शहीद-ए आज़म भगत सिंह का जन्म आज ही के दिन पंजाब प्रान्त के लायलपुर गांव (अब पाकिस्तान) में हुआ था. हालांकि कुछ लोगों का ये भी मानना है की उनका जन्म 27 सितम्बर 1907 को हुआ था. 13 अप्रैल 1919 को हुए जलियांवाला बाग हत्याकांड ने उनके जीवन पर गहरा असर डाला और वह आज़ादी की लड़ाई से जुड़ गए. 1922  में जब गाँधी जी ने चौरी-चौरा हत्याकांड के बाद असहयोग आंदोलन वापस ले लिया तो उनका कांग्रेस और गाँधी की अहिंसावादी विचारधारा से मोह भंग हो गया
साइमन कमीशन का विरोध करने पर अंग्रेजी हूकूमत ने लाला लाजपत राय पर लाठीचार्ज किया जिसमें वो बुरी तरह से घायल हो गए थे और इसकी वजह से उनकी मृत्यु हो गई थी. लाला जी की मृत्यु से सारा देश उत्तेजित हो उठा और चंद्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव व अन्य क्रांतिकारियों ने लालाजी की मौत का बदला लेने का निर्णय किया. इन जाँबाज देशभक्तों ने लालाजी की मौत के ठीक एक महीने बाद अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली और 17 दिसम्बर 1928 को ब्रिटिश पुलिस के अफ़सर सांडर्स को गोली से उड़ा दिया.
इस दौरान तीनों को गिरफ्तार कर लिया गया. 26 अगस्त, 1930 को अदालत ने भगत सिंह विस्फोटक पदार्थ का अपराधी सिद्ध किया. 7 अक्तूबर, 1930 को अदालत में भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई. वहीं फांसी की सजा सुनाए जाने के साथ ही लाहौर में धारा 144 लगा दी गई. इसके बाद भगत सिंह की फांसी की माफी के लिए प्रिवी परिषद में अपील दायर की गई लेकिन यह अपील 10 जनवरी, 1931 को रद्द कर दी गई. इसके बाद तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष पं. मदन मोहन मालवीय ने वायसराय के सामने सजा माफी के लिए 14 फरवरी, 1931 को अपील दायर की कि वह अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए मानवता के आधार पर फांसी की सजा माफ कर दें.
इसके अलावा महात्मा गांधी ने इस विषय को लेकर 17 फरवरी 1931 को वायसराय से बात की फिर 18 फरवरी, 1931 को आम जनता की ओर से भी वायसराय के सामने विभिन्न तर्को के साथ सजा माफी के लिए अपील दायर की. यह सब कुछ भगत सिंह की इच्छा के खिलाफ हो रहा था क्यों कि भगत सिंह नहीं चाहते थे कि उनकी सजा माफ की जाए.
इस बीच 23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह और इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई. फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और जब उनसे उनकी आखरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि वह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और उन्हें वह पूरी करने का समय दिया जाए. कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- “ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो लें. फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले – “ठीक है अब चलो.”
फाँसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे –
मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे;
मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला।।
फाँसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाये इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किये फिर इसे बोरियों में भरकर फिरोजपुर की ओर ले गये जहाँ घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा. गाँव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आये. इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंका और भाग गये. जब गाँव वाले पास आये तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो को एकत्रित करके पूरी विधि के साथ उनका दाह संस्कार किया.
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