लखनऊ: यूपी में नई आने वाली सरकार से पहले 1952 से अब तक कुल 16 बार विधानसभा चुनाव हुए हैं और अब तक कुल सात बार ही ऐसा हुआ है कि पूरे बहुमत से सरकारें चुन कर आई हों, यानी 9 बार हालात त्रिशंकु सरकारों के पक्ष में वोट हुआ है और ऐसे हालात में केन्द्र सरकार को मौका मिलता है राष्ट्रपति शासन का और उसके मामले में यूपी अव्वल रहा है और इसकी सिर्फ एक वजह रही है, पिछले दो चुनावों को छोड़ दिया जाए तो जनता का वोट बंटता रहा है, कभी धर्म के नाम पर तो कभी जाति के नाम पर.
हंग असेम्बली देने का नुकसान यूपी को ये हुआ है कि पूरे सात बार सरकारें अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाईं और मध्यावधि चुनाव करवाने पड़ गए. 1972, 1979, 1982, 1990,1995, 1996 और 1998, इन सबकी शुरूआत मानी जाती है नॉन कांग्रेसी सरकारों के दौर की शुरूआत के बाद, जिसका श्रीगणेश चौधरी चरण सिंह ने 1967 से किया था.
कांग्रेस से अलग होकर उन्होंने भारतीय क्रांति दल बनाया और कांग्रेस को तोड़कर अपनी सरकार बनाई. उसके बाद तो चुनाव होते थे और किसी को बहुमत मिलता नहीं था और फिर लगता था राष्ट्रपति शासन, कुल दस बार राष्ट्रपति शासन लगने का रिकॉर्ड है यूपी में.
यूपी में राष्ट्रपति शासन लगने की शुरूआत हुई 1968 से, चौधरी चरण सिंह की 328 दिन की सरकार के बाद राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया, विधानसभा भंग कर दी गई. कुल एक साल और एक दिन तक केन्द्र का शासन रहा और फिर विधानसभा चुनाव करवाए गए, इस दौरान ये मैसेज गया कि कांग्रेस ही सरकार चला सकती है.
हालांकि कांग्रेस के खाते में 211, भारतीय क्रांति दल के हिस्से में 98, सीपीआई के 80 और जनसंघ के 49 विधायक चुनकर आए थे. ऐसे में चुनाव के बाद कांग्रेस फिर सत्ता में आई और चंद्रभानु गुप्ता चीफ मिनिस्टर बनाए गए, लेकिन वो सिर्फ 356 दिन ही पद पर रह पाए. कांग्रेस के ही सहयोग से 225 दिन के लिए चरण सिंह फिर से मुख्यमंत्री बन गए. लेकिन फिर यूपी पर राष्ट्रपति शासन थोप दिया गया.
17 दिन के बाद 1970 में ही कांग्रेस ने पहले त्रिभुवन नारायण सिंह को 167 दिन के लिए और फिर कमलापति त्रिपाठी को दो साल के लिए मुख्यमंत्री बनाया. उसके बाद 148 दिन का राष्ट्रपति शासन और फिर हेमवती नंदन बहुगुणा को दो साल के लिए मुख्यमंत्री बना दिया गया.
52 दिन का फिर से राष्ट्रपति शासन लगा, और 1974 में फिर से विधानसभा चुनाव हुए. इस चुनाव में खास बात ये हुई कि जहां एक तरफ कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया एकदम 80 से 16 पर आ गई वहीं जनसंघ और क्रांतिदल ने अपनी सीटें बढ़ा लीं तो कांग्रेस ने चार सीटें और बढ़ाकर बहुमत पा लिया. एनडी तिवारी सीएम बने, लेकिन उनको ये मौका एक साल और नियानवे दिन के लिए ही मिल पाया, 1977 में जनता पार्टी सरकार ने कई कांग्रेस सरकारों के साथ यूपी की सरकार को भी बर्खास्त करके विधानसभा भंग कर दी. 54 दिन के राष्ट्रपति शासन के बाद फिर से चुनाव हुए, और जनता पार्टी की सरकार बनी, रामनरेश यादव सीएम बनाए गए.
कांग्रेस 47 सीटों पर सिमट गई, कांति दल और जनसंघ जनता पार्टी में मिल गए और सीट आईं 352, चरण सिंह केन्द्र में चले गए. रामनरेश भी एक साल 249 दिन ही सीएम रह पाए, 25 फरवरी 1979 को वो एक विश्वास मत प्रस्ताव में वोटिंग के दौरान हार गए और उनकी जगह बनारसी दास गुप्त सीएम बनाए गए. उनकी किस्मत में भी 354 दिन तक ही गद्दी लिखी थी, इंदिरा गांधी 1980 में फिर दमखम से लौटीं और यूपी की सरकार बर्खास्त करके विधानसभा भंग कर दी गई, 113 दिन तक राष्ट्रपति शासन रहा.
1980 में जनसंघ का नया संस्करण बीजेपी गठित हो चुकी थी, पहले यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी को केवल 11 सीटें मिलीं, जनता पार्टी के चरण सिंह गुट को 59 सीटें मिलीं और वो मुख्य विपक्षी पार्टी थी, जबकि कांग्रेस को 309 सीटें मिलीं. इस सरकार ने भले ही पांच साल पूरे किए, लेकिन एक नहीं, दो नहीं पूरे तीन तीन बार मुख्यमंत्रियों को बदला गया. 2 साल 39 दिन के लिए वीपी सिंह सीएम रहे, 2 साल 14 दिन के लिए श्रीपति मिश्रा सीएम रहे और फिर 7 महीनों के लिए एनडी तिवारी को सीएम बना दिया गया.
1985 में हुए चुनावों में इंदिरा की मौत के बाद की सुहानुभूति लहर कायम थी, कांग्रेस को 269 सीट्स मिलीं, बीजेपी 16 पर ही सिमट गई, लेकिन चरण सिंह के बाद अजीत सिंह, मुलायम सिंह के लोकदल ने 84 सीट्स हासिल कीं, सीपीआई 6 सीट्स पर आकर खत्म होने के कगार पर आ गई. एनडी तिवारी की ही अगुवाई में ही चुनाव लडा गया था, फिर भी सात महीने बाद उनको कुर्सी छोड़नी पड़ी. बाद में उन्हें केन्द्र में विदेश मंत्रालय का प्रभार सोंप दिया गया.
एनडी तिवारी की जगह मौका मिला वीर बहादुर सिंह को, 2 साल 274 दिन के बाद उन्हें भी केन्द्र में मंत्री बना दिया गया और फिर से एनडी तिवारी को यूपी की कमान सौंप दी गई, जो पांच दिसम्बर 1989 तक सीएम रहे, फिर यूपी में अगले चुनाव हुए. तब तक वीपी सिंह, लालू, मुलायम, नीतीश, देवीलाल आदि मिलकर जनता दल बना चुके थे, यूपी के राजा की बड़ी तगड़ी लहर थी, मंडल और बोफोर्स केस ने उनको हीरो बना दिया था.
इन चुनावों के नतीजे हैरतअंगेज थी, कांग्रेस 94 पर सिमट गई, तो बीजेपी 57 पर पहुंच गई और जनता दल की 208 सीटें आईं, यानी 425 सीटों में बहुमत के लिए कुल पांच सीट ही कम थीं, तो बीसपी ने पहली बार चुनाव लड़ा, कुल 13 सीटें लेकर आई. ऐसे में चीफ मिनिस्टर की पोस्ट के दो दावेदार थे, अमेरिका से लौटे चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह और मुलायम सिंह, वीपी सिंह अजीत सिंह को बनाने के मूड में थे. गुजरात से चिमन भाई पटेल को पर्यवेक्षक के तौर पर भेजा गया, मुलायम का तगड़ा जनाधार था.
चिमनभाई दिल्ली लौटे और मुलायम के नाम का ऐलान कर दिया. लेकिन अगले ही साल वीपी सिंह की सरकार गिर गई, राम मंदिर आंदोलन में गिरफ्तारी के बाद बीजेपी ने समर्थन वापस ले लिया. चंद्रशेखर को कांग्रेस ने सपोर्ट कर पीएम बनाया तो मुलायम ने चंद्रशेखर से हाथ मिला लिया.
1991 में चंद्रशेखर की सरकार गिरी तो मुलायम की भी गिर गई, इस तरह कुल एक साल 201 दिन ही सीएम रह पाए मुलायम. 1991 में फिर से चुनाव हुए, राम लहर पर सवार बीजेपी ने सबको धूल चटा दी, कल्याण सिंह सीएम बने, जनता दल 92 पर तो कांग्रेस 46 पर सिमट गई, बीएसपी ने 13 में से 12 सीटें बरकरार रखीं.
1992 में एक साल 165 दिन की सरकार के बाद बाबरी ढांचे के टूटने के बाद कल्याण सिंह की सरकार बर्खास्त कर दी गई। इधर मुलायम सिंह की समझ में ये आ गया था कि कभी चरण सिंह, कभी वीपी सिंह या कभी चंद्रशेखर की पार्टियों से जुड़कर काम नहीं चलने वाला, उन्होंने अपनी पार्टी समाजवादी पार्टी की नींव रख दी. वैसे भी उनका अजगर (AJGR) यानी अहीर (यादव), जाट, गुर्जर और राजपूत फॉर्मूला अब अजीत सिंह के निकलने के बाद चलने वाला नहीं था. बाबरी कांड के बाद उन्हें यादव और मुस्लिम का एमवाई फैक्टर ज्यादा मुफीद नजर आ रहा था.
1993 में फिर से चुनाव हुए। चुनाव से पहले मुलायम और कांशीराम ने हाथ मिला लिया, सपा 264 पर और बसपा 156 सीटं पर चुनाव लड़ी. नतीजा ये हुआ कि कांग्रेस अपने निम्नतम स्तर पर आ गई, कुल 28 सीटों पर सिमट गई, तो बीजेपी भी घटकर 177 पर आ गई, बावजूद इसके वो सबसे बड़ी पार्टी थी. मुलायम की नई पार्टी सपा 109 सीट ले आई, लेकिन बीएसपी ने भी गजब का उभार लिया, कुल 67 सीटें लेकर आई बीएसपी. कैसे भी सरकार बनीं और मुखिया बने मुलायम सिंह यादव, लेकिन कुल एक साल 181 दिन के बाद मायावती ने मुलायम सिंह से समर्थन वापस लेने का ऐलान कर दिया और इसी दौरान हुआ गेस्ट हाउस कांड. उसके बाद से दोनों पार्टियों के बीच दूरियां इतनी बढ़ गईं कि हाथ मिल नहीं पाए. गेस्ट हाउस कांड में बीजेपी नेता ब्रह्मदत्त द्विवेदी ने माया की मदद की थी, तो माया बीजेपी के निकट आ गईं और बीजेपी के बाहरी समर्थन से सीएम बन गईं, लेकिन जून 1995 से अक्टूबर तक.
माया की 137 दिन की सरकार के बाद 1 साल 154 दिन तक राष्ट्रपति शासन रहा, रोमेश भंडारी इसे बार बार बढ़ाते रहे और 1996 में फिर से चुनाव हुए, फिर से सीटें तकरीबन वहीं थीं. सपा 110 सीट पर थी, बीजेपी 173 सीट लाकर नंबर 1 पार्टी थी और बसपा 67 सीटों के साथ तीसरे स्थान पर थी. लेकिन फिर भी मायावती बीजेपी की मदद से फिर सीएम बन गई. इस बार बीजेपी-बीएसपी ने नया फॉर्मूला लगाया, 6-6 महीने की सरकार का. पहले बीएसपी से मायावती को मौका दिया गया, 21 मार्च 1997 को मायावती दूसरी बार यूपी की सीएम बनीं. दोनों के बीच विधानसभा अध्यक्ष पद को लेकर विवाद हुआ, लेकिन केशरीनाथ त्रिपाठी बीजेपी से ही बने.
फिर 6 महीने के लिए कल्याण सिंह सीएम बने, लेकिन माया सरकार के कई फैसले बदलने के चलते फिर विवाद होने लगा. एक महीने के अंदर ही मायावती ने कल्याण सिंह की सरकार से समर्थन वापस ले लिया. रोमेश भंडारी ने भी कल्याण को दो दिन के अंदर बहुमत साबित करने को कहा, और फिर शुरू हुई तोड़फोड़. नरेश अग्रवाल ने कांग्रेस से तोड़कर लोकतांत्रिक कांग्रेस बनाली और कल्याण को सपोर्ट कर दिया. कल्याण सिंह ने किसी भी तरह बहुमत साबित कर ही दिया, काफी आलोचना और विवाद भी हुआ इसके बाद. कल्याण ने पाला बदलने वाले हर विधायक को मंत्री बनाया और रिकॉर्ड 93 विधायकों को मंत्री बनाया.
लेकिन फिर खेल शुरू हुआ, 21 फरवरी 1998 को रोमेश भंडारी ने कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त करके कल्याण के ही ट्रांसपोर्ट मंत्री जगदम्बिका पाल को मुख्यमंत्री घोषित कर दिया और उसी रात को साढे दस बजे शपथ भी दिला दी, गुस्से में बाजपेयी जी आमरण अनशन पर बैठ गए. रात को ही हाईकोर्ट से राज्यपाल के ऑर्डर पर स्टे मिला, तब जाकर जगदम्बिका पाल अगले दिन कुर्सी पर से हटे. 26 फरवरी को सुपीम कोर्ट के आदेश पर कल्याण ने फिर बहुमत साबित किया, तब जाकर किस्सा खत्म हुआ. लेकिन कल्याण की किस्मत खराब थी, 1999 में कुसुम राय के चलते उनको पार्टी छोड़कर राष्ट्रीय क्रांति बनानी पड़ी और बीजेपी ने नए सीएम बनाए रामप्रकाश गुप्ता, जो 351 दिन तक ही सीएम रह पाए, उसके बाद कल्याण सरकार के लिए जोड़ तोड़ करवाने वाले राजनाथ सिंह को सीएम बनाया गया. वो 1 साल 131 दिन के लिए सीएम रहे.
2002 के चुनावो में बीजेपी बीएसपी से भी नीचे आ चुकी थी, बीजेपी 88 सीटों पर थी और बीएसपी 98 पर, जबकि कांग्रेस कांग्रेस की 25 सीटें थीं और सपा सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर पहली बार सामने आई, कुल 143 सीटों के साथ. मामला फिर अटक गया था. कल्याण की पार्टी को केवल 4 सीटें मिली थीं. इधर उत्तराखंड अब यूपी से अलग हो चुका था. त्रिशंकु विधानसभा के चलते 56 दिन तक राष्ट्रपति शासन रहा. उसके बाद मायावती को बीजेपी और रालोद ने समर्थन देकर सरकार बनवा दी.
माया राजा भैया से खफा थी, राजा को पोटा लगाकर जेल भेज दिया गया. बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष विनय कटियार ने पोटा हटाने को कहा, माया ने साफ मना कर दिया. इधर केन्द्र में बीजेपी की सरकार थी, ताज हेरिटेज क़ॉरीडोर विवाद में केन्द्रीय पर्यटन मंत्री ने माया सरकार को जिम्मेदार ठहराया तो मामला और बिगड़ गया. नतीजा माया ने पीसी करके जगमोहन से इस्तीफा मांगा, बीसपी सांसदो ने भी सदन में हंगामा किया. 26 अगस्त 2003 को माया ने विधानसभा भंग करने की मांग के साथ इस्तीफा सौंप दिया.
राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री ने विधानसभा भंग नहीं की, इधर मुलायम ने सरकार बनाने का दावा पेश किया, माया के 13 विधायक मुलायम के सपोर्ट में आ गए, माया ने दलबदल कानून का हवाला दिया. लेकिन जब बीजेपी, राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्ष तीनों ने मुलायम के हक में फैसला लिया तो मुलायम फिर से चीफ मिनिस्टर बन गए और अपना कार्यकाल पूरा किया.
बीएसपी के 37 विधायक और टूट गए, कांग्रेस का भी सपोर्ट मिल गया और ये सब इसलिए हुआ क्योंकि कोई भी जल्दी चुनाव नहीं चाहता था. लेकिन माया फिर ताकत के साथ लौटी, 2007 में माया को पूरा बहुमत मिला 206 सीटों के साथ, तो 2012 में अखिलेश यादव को पूरा बहुमत मिला 224 सीटों के साथ. बीजेपी और कांग्रेस सही नेता के अभाव में काफी कम सीटों पर सिमटती रहीं.
पिछली दो बार से जिस तरह से यूपी की जनता ने त्रिशंकु सरकारों से तंग आकर किसी ना किसी लहर में आकर पूरे बहुमत से सरकारें बनाई हैं, यहां तक कि 2014 के चुनाव में केन्द्र में भी बीजेपी की सरकार बनाई है, उससे लगता तो नहीं था कि इस बार त्रिशंकु विधानसभा के हालात होंगे. लेकिन अखिलेश यादव ने कांग्रेस से हाथ मिलाकर मोदी लहर को कड़ी टक्कर दी. इधर एक्जिट पोल्स मे जिस तरह के नतीजे आए हैं, उन्हें देखकर कुछ भी अंदाजा लगाना मुश्किल है कि यूपी का ऊंट किस करवट बैठेगा, पिछले दो बार की तरह स्थिर सरकार देगा या हर साल गिरने वाली अल्पमत सरकार. क्योंकि साझा सरकारों का दौर आया तो सत्ता की खींचतान यूपी का विकास फिर से रोक सकती है.