नई दिल्ली: राजनीति में परिवारवाद और वंशवाद कोई नई बात नहीं है. हालांकि इसकी खूब आलोचना होती है. लेकिन कोई भी दल इससे अछूता नहीं है. चुनाव आते ही दलों की कसौटी केवल जिताऊ उम्मी दवार हो जाती है.
ऐसे में संबंधित क्षेत्र में प्रभाव रखने वाले रसूखदार परिवार के एक से भी अधिक सदस्यों को पार्टियां टिकट देने से भी गुरेज नहीं करतीं. यूपी और उत्तराखंड के चुनावों में भीएक बार फिर से वंशवाद खुलकर उभरा है.
वंशवाद राजनीति का वो मुद्दा जिसपर चर्चाभले ही जितनी मर्जी हो लेकिन सबसे बड़ा सच यही है कि भीतरखाने सारे दल और सारे नेता वंशवाद के मुरीद हैं. शायद ये अकेला मुद्दा है जिसपर सभी दल एकमत हैं.
क्योंकि अपनी राजनीतिक पारी खत्म होने से पहले हर नेता अपनी राजनीतिक विरासत अपनी अगली पीढ़ी के हाथों में सौंप देना चाहता है. बिहार चुनाव में लालू यादव और कांग्रेस पर वंशवाद को लेकर निशाना साधने वाली बीजेपी भी यूपी और उत्तराखंड चुनाव में खुद वंशवाद की नज़ीर बनकर सामने आई है.
बीजेपी की दूसरी लिस्ट में कई नेताओं के बेटे-बेटी और बहू को टिकट मिला है. विपक्ष को परिवारवाद की दुहाई देने वाले बीजेपी नेताओं को इसको लेकर सवालों का सामना करना पड़ सकता है.
यूपी में ही 8 बीजेपी नेताओं के करीबी रिश्तेदारों को टिकट दिए गए हैं. लेकिन ऐसा नहीं कि वंशवाद के इस खेल को सिर्फ बीजेपी ही खेल रही है. समाजवादी पार्टी तो हमेशा से ही राजनीति को अपना पारिवारिक हक मानती रही है. ताज़ा चुनाव में भी सपा ने फिर वही दोहराया है.
पिता मुलायम सिंह यादव की वजह से सीएम की कुर्सी तक पहुंचे अखिलेश ने भले ही पिता और चाचा को हराकर राजनीति की एक जंग जीत ली हो लेकिन ऐसा नहीं कि वो वंशवाद से पल्ला झाड़ चुके हैं. इस बार के विधानसभा चुनाव के लिए एसपी का टिकट हासिल करनेवालों में यादव परिवार के लोगों का हुजूम भी मौजूद है.
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