नई दिल्ली. संसद का शीतकालीन सत्र नोटबंदी के मुद्दे की भेंट चढ़ता दिखाई दे रहा है. आज सत्र का आठवां दिन है और इसी मुद्दे पर लोकसभा और राज्यसभा आज एक-एक बार स्थगित हो चुके हैं.
यह नज़ारा सिर्फ आज का ही नहीं है. शीतकालीन सत्र के पहले दिन से ही नोटबंदी के मुद्दे को लेकर विपक्ष सरकार को घेरने की कोशिश कर रहा है. इसे लेकर विपक्ष प्रधानमंत्री के जवाब की मांग कर रही है. इसके लिए कल पीएम मोदी राज्यसभा पहुंचे थे लेकिन हंगामे चलते उन्हें बोलने का मौका नहीं मिला.
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ऐसे में सवाल उठता है कि अगर संसद का यह स्तर नोटबंदी के विरोध के चलते हंगामें की भेंट चढ़ जाता है तो क्या इससे पहले से ही असुविधा का सामना कर रही जनता को कोई लाभ होगा ? जवाब है बिलकुल नहीं. मालूम हो कि संसद ना चलने पर प्रति मिनट जनता को ढाई लाख रुपये का नुकसान होता है. यह आंकड़ा खुद यूपीए की सरकार ने 2012 में दिया था. बताया यह भी गया था कि संसद की एक घंटे की कार्यवाही पर 1.5 करोड़ रुपये और पूरे दिन के काम पर करीब 9 करोड़ रुपये खर्च होते हैं.
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ऐसे में पहले ही नोटबंदी के चलते पैसों की किल्लत झेल रहे आम आदमी को विपक्ष के इस रवैये से कोई लाभ नहीं होने वाला है. इस हंगामे पर काबू पाने के लिए संसद में माशल मौजूद हैं लेकिन इनका इस्तेमाल भी समय के साथ साथ नाम मात्र का रह गया है. ऐसा इसलिए भी क्योंकि विपक्ष में रहते हुए दोनों ही सभी पार्टियां इस तरीके का इस्तेमाल करती है.
ऐसे में हर महीने डेढ़ लाख रुपये की तय तनख्वाह के अलावा सरकारी बंग्ला और मुफ्त में मिलने वाली सुविधाओं की लंबी-चौड़ी लिस्ट रखने वाले हमारे सांसद क्या समझ पाएंगे कि संसद को ना चलने देने से नुक्सान जनता का ही है.
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