नई दिल्ली. बीजेपी, कांग्रेस, सपा, बसपा, सीपीएम, सीपीआई, जेडीयू, आरजेडी, शिवसेना, टीडीपी, टीएमसी, डीएमके, एआईडीएमके, बीजेडी, आप जैसी मुख्यधारा की पार्टियों समेत 1800 से ज्यादा राजनीतिक दल भारत में चुनाव आयोग के पास रजिस्टर्ड हैं. कहीं ऐसी पार्टियां 500 और 1000 के नोट वाले काला धन को सफेद करने की मशीन तो नहीं बन जाएंगी.
ये सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि देश के लोकप्रतिनिधित्व कानून की धारा 29-सी के मुताबिक कोई भी रजिस्टर्ड राजनीतिक दल किसी भी भारतीय नागरिक या कंपनी से जितना चाहे, उतना चंदा ले सकता है और उसमें से बस उन चंदों का उसे नाम-पता बताना पड़ता है जिसने उसे 20 हजार रुपए से ज्यादा का चंदा दिया हो.
मान लीजिए कि आपने किसी पार्टी को 1000 रुपया का चंदा दिया या 19999 रुपए का दिया या फिर 5 रुपए का दिया, कानून के मुताबिक इसे वो पार्टी चुनाव आयोग में यह कहकर आय में दिखा सकती है कि उसे ये चंदा रसीद काटने से मिला है, कूपन बेचने से मिला है या कुछ और भी. मोटा-मोटी बात ये कि उसे 20 हजार रुपए से कम का चंदा देने वाले का नाम जगजाहिर नहीं करना पड़ता है.
अब आप सोच रहे होंगे कि इस नियम का काला धन को सफेद करने से क्या ताल्लुक है तो सबसे पहले ये जानिए कि इस समय देश में करीब 1800 गैर मान्यता प्राप्त रजिस्टर्ड राजनीतिक दल हैं. करीब 50 के आस-पास प्रांतीय मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल हैं. 6 राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दल हैं.
इनमें से बहुत सारी पार्टियों को तो हम जानते हैं लेकिन ऐसी पार्टियां सैकड़ों की संख्या में हैं जिनका नाम भी हम नहीं जानते. ये बस चुनाव आयोग को पता है या उनको ही पता होगा जिन्होंने ये पार्टियां शुरू की हैं या जिनके घर के बगल में इस पार्टी का दफ्तर होगा और वहां ऐसा कोई बोर्ड लगा होगा.
अगर राजनीतिक दलों को कानून के तहत ये संरक्षण मिला हुआ है कि वो चंदा देने वाले ऐसे लोगों के नाम का खुलासा न करें या करें जो 20 हजार से कम रुपया दे रहे हैं तो इसका दुरुपयोग भी तो हो सकता है. वैसे भी ये मानने वालों की कमी नहीं है कि बहुत सारी पार्टियां काफी लोगों के लिए आयकर छूट के प्रावधानों का लाभ लेने का जरिया भर बनी हुई हैं.
अब अगर ऐसी पार्टियों के नेता 30 दिसंबर से पहले बैंक पहुंचें और कहें कि पकड़िए मैनेजर साहब 500 और 1000 के नोट जो टोटल 50 करोड़ हैं या 100 करोड़ हैं जो हमने चंदा करके जुटाया है और इसे जमा करिए हमारी पार्टी के खाते में तो कौन सा कानून इन्हें रोकेगा या कौन सा कानून कहेगा कि ये पैसा काला है या सफेद.
जब कानून के तहत ही राजनीतिक दलों को रसीद काटकर छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा चंदा लेने का अधिकार मिला है तो वो बैंक में 500 और 1000 के नोट वाले सारे रुपए जमा करके चुनाव आयोग में रिटर्न दाखिल कर देंगे कि रसीद काटकर उनकी पार्टी ने ये चंदा जुटाया.
अब ये रुपया किसी भी काला धन वाले का हो सकता है जो बाद में कभी भी डील की शर्तों के मुताबिक अपने पैसे वापस पा लेगा. हां, वो पैसा फिर भी रहेगा काला धन ही क्योंकि वो आदमी तब भी उसे घोषित आय का हिस्सा नहीं बना पाएगा लेकिन उसके सड़ने-गलने को तैयार बैठे 500 और 1000 के नोट थोड़ी बहुत कमी के साथ बदलकर घर जरूर वापस आ जाएंगे.
मान लीजिए कि किसी रजिस्टर्ड पार्टी की पिछली साल की आय 5 लाख ही रही हो और वो इस साल 30 दिसंबर से पहले बैंक में जाकर कहे कि हमें रसीद और कूपन से इस बार 50 करोड़ या 100 करोड़ या 200 करोड़ का चंदा मिला है तो कौन सा कानून उनको पिछले साल की आय से इस साल की आय के विशालकाय बड़े अंतर पर सवाल पूछ सकेगा. पार्टी है. जनता ने चंदा दे दिया तो दे दिया.
कहने का मतलब ये है कि राजनीतिक दलों को जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 29-सी के तहत 20 हजार रुपए से कम के चंदे का स्रोत ना बताने की जो छूट मिली है, उसका इस्तेमाल 500 और 1000 के नोट को निपटाने में भी किया जा सकता है. चंदा देने वालों की संख्या पर कोई पाबंदी तो है नहीं.
पार्टी के नेता 19999 रुपए की 19999 रसीद फाड़ दें तो कौन रोक लेगा. कोई रोकेगा क्या ? बस रसीद या कूपन की रकम 19999 से नीचे की हो तो चंदा देने वालों की संख्या 1 लाख हो या 2 लाख, कोई ना रोक सकता है, ना टोक सकता है, ना पूछ सकता है. ये हमारा जनप्रतिनिधित्व कानून है.