मैं अर्थशास्त्र नहीं समझता, फिर भी…

मैं अर्थशास्त्र बिल्कुल नहीं समझता. मुझे बाज़ार की रत्ती भर समझ नहीं है, ये मैं खुले दिल से कबूल करता हूं. फिर भी वित्त मंत्री अरुण जेटली की शनिवार की प्रेस वार्ता के बाद मुझे बेचैनी सी महसूस हो रही है. इसकी जो वजह मेरे दिमाग में है, वो बता देता हूं. बाकी तो मैं कह ही चुका हूं कि मैं अर्थशास्त्र नहीं समझता.
वित्त मंत्री ने पांच सौ और एक हज़ार रुपये के नोटों के बंद होने की उपलब्धियां बताते हुए कहा- ‘पहले दो दिनों में ही लगभग दो लाख करोड़ रुपये का लेनदेन हुआ है, जिसमें ज्यादा तादाद बैंकों में जमा किए पैसे की है. स्टेट बैंक ने सवा दो दिनों में 54 हज़ार 370 करोड़ का लेनदेन किया है. बैंक में 47 हज़ार 468 करोड़ रुपये जमा किए गए हैं. देश में कुल बैंकिंग में 20-25 हिस्सेदारी स्टेट बैंक की ही है.’
जो मोटा मतलब मुझे समझ में आया, वो ये कि स्टेट बैंक में सवा दो दिन में जितने पैसे जमा किए गए हैं, उसकी तुलना में सिर्फ 6902 करोड़ रुपये ही निकाले गए हैं. मतलब कुल जमा का करीब 13 फीसदी. मतलब 87 फीसदी नकदी बाज़ार से निकल कर बैंक में पहुंच गई है. चूंकि वित्त मंत्री ने स्टेट बैंक के हवाले से ही देश में जमा रकम का हिसाब बताया है, इस लिहाज से 2 लाख करोड़ में से सिर्फ 26 हज़ार करोड़ रुपये बैंकों से निकले हैं यानी 1 लाख 74 हज़ार करोड़ रुपये बाज़ार से गायब होकर बैंकों में पहुंच गए हैं.
मैं अर्थशास्त्री नहीं हूं, बाज़ार का जानकार भी नहीं हूं. फिर भी मुझे ये सवाल परेशान कर रहा है कि एक झटके में अगर सिर्फ दो दिन में पौने दो लाख करोड़ की नकदी बाज़ार से गायब हुई तो बाज़ार में कारोबार करने वालों का क्या हाल हो रहा होगा? बाज़ार में कारोबार नहीं होगा, तो कारखानों में उत्पादन क्यों होगा?
आज ही प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो ने बताया है कि देश में सितंबर 2016 में औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर 0.7 फीसदी रही. पिछले साल अप्रैल-सितंबर की छमाही से तुलना करें तो इस साल की पहली छमाही में औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि दर निगेटिव रही है. पिछले साल की पहली छमाही से 0.1 फीसदी कम.
पहले से कमजोर औद्योगिक उत्पादन में अगर नोटबंदी के चलते और गिरावट आई, जिसके पूरे आसार हैं, तो क्या होगा? ठेके पर काम कर रहे लोगों की छंटनी तो तय दिख रही है. छंटनी हुई तो बेरोज़गारी बढ़ेगी. बेरोज़गारी बढ़ी तो बाज़ार ठंडा होगा और बाज़ार ठंडा होगा तो देश की आर्थिक विकास का क्या होगा?
मैं अर्थशास्त्र नहीं समझता. फिर भी ये सवाल मुझे परेशान कर रहा है कि अभी बैंकों के ऑटोमेटिक ट्रेलर मशीन (एटीएम) से निकासी सामान्य होने में दो-तीन हफ्ते लगेंगे. मतलब कि दो हज़ार की लिमिट दो-तीन हफ्ते जारी रहेगी. बैंक खाते से निकासी की लिमिट भी 10 हज़ार रुपये एक दिन और 20 हज़ार रुपये हफ्ते की है.
मेरे जैसे कई लोग हैं, जो पिछले 4 दिनों से इस उम्मीद में बैठे थे कि शुरुआती दिक्कत 3-4 दिनों में खत्म हो जाएगी, फिर जाएंगे बैंक. इस दौरान उधारी पर गुजर चलती रही. अब उधारी बढ़ रही है और सरकार स्थिति सामान्य होने के दिन भी बढ़ाए जा रही है. आम लोगों को चिंता है कि दो हजार रुपल्ली से उधारी चुकाएंगे कि ज़रूरतें पूरी करेंगे?
मैं कह चुका हैं कि मुझे अर्थशास्त्र और बाज़ार समझ में नहीं आता, फिर भी ये सोचकर हैरान हूं कि जो छोटे दुकानदार थोक दुकानों से उधारी लेकर माल खरीद रहे हैं, वो 20 हज़ार हफ्ते की लिमिट पर कितने दिनों में पिछला हिसाब चुका पाएंगे? पिछला हिसाब चुकाएंगे तो आगे की खरीदारी की उधारी नहीं चढ़ेगी क्या?
संकट ये है कि छोटे दुकानदारों के तमाम ग्राहक ऐसे हैं, जो आज उधार, बाद में नकद की पॉलिसी पर चल रहे हैं यानी ग्राहक से छोटे दुकानदार और छोटे दुकानदार से थोक विक्रेता तक उधारी की चेन चल रही है. माना कि दो-तीन हफ्तों में एटीएम से निकासी सामान्य हो जाएगी, लेकिन तब तक जो उधारी चढ़ेगी, उसे चुकाने में कितना वक्त लगेगा, ये मेरी समझ में नहीं आ रहा.
मीडिया में हालात का संतुलित चित्रण चल रहा है, लेकिन ये चित्रण भी महानगरों की जनता के हवाले से है, जिनकी पहुंच एटीएम, बैंकिंग, ऑनलाइन शॉपिंग और ई-वॉलेट तक है. सोचता हूं कि कुसुम्ही बाज़ार, पिपराइच, सोनबरसा वालों का क्या हाल होगा? बराड़ा, हथीन, पिपरपांती के लोगों की ज़िंदगी कैसे चल रही होगी, क्योंकि पिछले एक दशक की महंगाई के बाद सबके लिए पांच सौ रुपये का नोट सौ रुपये के बराबर हो चुका है.
इसलिए गांवों में भी सौ-सौ के पांच पत्ते रखने की बजाय लोग पांच सौ का एक पत्ता रखकर ही निश्चिंत थे. अब इस बात की चिंता तो दूर गांव बैठे उन लोगों को भी होगी, जिनकी पहुंच से बैंक मीलों दूर हैं और एटीएम का दरवाज़ा जिन्होंने कभी नहीं देखा.
मैं बैंकिंग एक्सपर्ट नहीं हूं, लेकिन महानगर में रहते हुए भी पिछले 12 साल का तजुर्बा यही है कि वक्त ज़रूरत पर एक तिहाई एटीएम से खाली हाथ ही लौटना पड़ता है. कहीं कार्ड एक्सेप्ट नहीं होता, तो कहीं ट्रांजैक्शन डिक्लाइन्ड का मैसेज मायूस कर जाता है और कहीं-कहीं तो सिक्योरिटी गार्ड के हाथों की टेढ़ी-मेढ़ी लिखावट वाली तख्ती लटकी होती है कि एटीएम काम नहीं कर रहा.
प्रधानमंत्री जी ने नए नोट भरने के लिए दो दिन एटीएम बंद करने की बात कही थी. बैंक और एटीएम में पैसा भरने वाली एजेंसियों ने एक दिन एक्स्ट्रा ले लिया. तब तक करंसी की किल्लत इतनी बढ़ गई कि एटीएम खुलते ही कतारें लंबी होने लगीं. दिन ब दिन कतारें और लंबी हो रही हैं.
ताज़ा वाकया अपने ऑफिस वाले एटीएम का बताता हूं. शुक्रवार की रात एटीएम चला तो लोग सीढ़ियों तक पर लाइन लगाकर अपनी बारी का इंतज़ार करते रहे. अचानक चिल्ल-पों मची कि एटीएम में किसी का कार्ड अटक गया है. अगले दिन सुबह एटीएम दोबारा शुरू हुआ. फिर पहली मंजिल की सीढ़ियों तक कतार लगी. मुझ जैसे कुछ लोग कतार छोटी होने का इंतजार कर रहे थे, क्योंकि कतार बनाने के लिए जगह नहीं थी. कतार छोटी होती, उससे पहले ही एटीएम की स्क्रीन पर मैसेज फ्लैश होने लगा कि कैश खत्म हो गया है. कतार छोटी नहीं हुई, क्योंकि एटीएम मशीन में भरे गए नोट छोटे हो गए हैं. सामान्य से 80 फीसदी छोटे, लेकिन खर्च तो जस का तस है. वो तो छोटा नहीं हुआ.
मैं अर्थशास्त्र नहीं समझता. मैं बाज़ार भी नहीं समझता. फिर भी ये सवाल मुझे परेशान कर रहा है कि खर्च बढ़ा रहेगा तो कम नकदी में गुजारा कैसे होगा, कितने दिन होगा? अब तक एक बार बैंक जाकर हफ्ता, पखवाड़ा या महीने भर की नकदी निकाल कर काम चलाते थे. अब रोज़ बैंक जाने की नौबत सामने है, क्योंकि देश की 60 फीसदी आबादी के पास आज भी ना तो ई-बैंकिंग, ई-कॉमर्स, मोबाइल बैंकिंग की ना तो पहुंच है और ना ही समझ.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
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