नई दिल्ली. बड़ी बहस में आज मुद्दा वोट के धार्मिक कनेक्शन का. दरअसल, चुनाव में धर्म और जाति के नाम पर वोट मांगने की मनाही है, फिर भी ज्यादातर पार्टियां और उम्मीदवार धर्म और जाति का कार्ड खुलकर खेलते हैं. नेता खुद अगर धर्म के नाम पर वोट नहीं मांगते, तो ये काम उनके लिए कोई धार्मिक संगठन या धर्मगुरु करने लगते हैं. अब सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने टिप्पणी की है कि धर्म के नाम पर वोट मांगना असंवैधानिक है. क्या देश में धर्म के नाम पर राजनीति का खेल बंद होगा.
देश में जब कोई कानून ताकतवर लोगों, खासकर नेताओं के मंसूबों में रोड़ा बनता है, तो उस कानून को तोड़ने के तरीके ढूंढ लिए जाते हैं. देश में ऐसा ही एक कानून है जन प्रतिनिधित्व अधिनियम. देश का लोकतंत्र इसी कानून के तहत जन प्रतिनिधियों का चुनाव करता है.
इस कानून में साफ-साफ लिखा है कि कोई भी उम्मीदवार या उसका एजेंट धर्म, जाति के नाम पर ना तो वोट मांग सकता है और ना ही चुनाव में ऐसा कोई हथकंडा अपना सकता है, जिससे जाति-धर्म के नाम पर नफरत भड़के.
फिर भी हर चुनाव में जाति और धर्म का खेल खुलेआम खेला जाता है और केस दर्ज़ होने पर नेता ये कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं कि धर्म के नाम पर वोट तो उनके लिए किसी और ने मांगा था. अब सुप्रीम कोर्ट के सात जजों की संविधान पीठ इस मामले की सुनवाई कर रही है. संविधान पीठ को ये व्याख्या करनी है कि क्या उम्मीदवार के समर्थन में कोई व्यक्ति या संगठन नाम पर किसी खास धर्म या जाति के लोगों से वोट देने की अपील कर सकता है ?
संविधान पीठ ने जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 123 (3) पर सुनवाई के दौरान ये टिप्पणी भी की है कि देश का संविधान धर्म को मानने की आजादी देता है, धर्म के नाम पर वोट मांगने की आज़ादी नहीं देता. इसी याचिका पर सुनवाई के दौरान ये मांग भी की गई कि सुप्रीम कोर्ट 1995 के अपने फैसले की व्याख्या करे, जिसमें हिंदुत्व को धर्म की बजाय जीवन शैली बताया गया है. हालांकि संविधान पीठ ने इससे इनकार कर दिया है.ॉ
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