ट्रिपल तलाक केस: मोदी सरकार अड़ेगी या शाह बानो रिटर्न्स कराएंगे मुस्लिम संगठन ?

मुसलमानों में तीन बार तलाक कहने भर से तलाक हो जाने की रवायत के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका पर केंद्र सरकार के हलफनामे पर मुस्लिम संगठनों में कोहराम मच गया है.

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ट्रिपल तलाक केस: मोदी सरकार अड़ेगी या शाह बानो रिटर्न्स कराएंगे मुस्लिम संगठन ?

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  • October 13, 2016 2:00 pm Asia/KolkataIST, Updated 8 years ago
नई दिल्ली. मुसलमानों में तीन बार तलाक कहने भर से तलाक हो जाने की रवायत के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका पर केंद्र सरकार के हलफनामे पर मुस्लिम संगठनों में कोहराम मच गया है.
मुस्लिम धर्मगुरुओं और नेताओं अदालत में केेद्र की राय को संविधान के समानता, लैंगिक आधार पर भेदभाव नहीं करने और सम्मान के साथ जीने के अधिकार का उल्लंघन बताया है. ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड समेत कई मुस्लिम संगठनों ने इसे शरियत के खिलाफ बताया है.
 
 
जबकि ट्रिपल तलाक के खिलाफ कोर्ट में खड़े संगठन भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन का कहना है कि कुरान में ट्रिपल तलाक का जिक्र है ही नहीं इसलिए ये शरिया के खिलाफ नहीं है.  साफ है कि मुस्लिम संगठन इस मामले में बंटे हैं इसलिए कोर्ट जब तक फैसला न सुना दे, तब तक ये बहस मुसलमानों के अंदर और बाहर चलती रहेगी.
 
तीन तलाक के पक्ष में तनकर खड़ा है मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड
 
लेकिन एक सवाल ये भी उठ खड़ा हुआ है कि क्या ट्रिपल तलाक़ मामले में भी आगे जाकर 1985 का इतिहास दोहराया जाएगा. ये सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि महिलाओं को समान अधिकार देने के केंद्र के पक्ष का ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और अन्य मुस्लिम संगठन जोरदार विरोध कर रहे है और उनका मानना है कि इसके जरिए नरेंद्र मोदी सरकार कॉमन सिविल कोड लागू करना चाहती है. 
 
अगर कोर्ट का फैसला ट्रिपल तलाक के खिलाफ गया और उसके बाद मुस्लिम संगठनों का बवाल बढ़ा तो क्या नरेंद्र मोदी सरकार अपने हलफनामे पर टिकी रहेगी या कोई राजनीतिक फैसला लेकर मुस्लिम संगठनों को शांत कराने की कोशिश करेगी ? क्या संसद का इस्तेमाल कोर्ट के फैसले का असर टालने या कम करने के लिए होगा ? क्या मुस्लिम संगठनों के दबाव के आगे मोदी सरकार झुकेगी ?
 
लॉ कमीशन पर भी पर्सनल लॉ बोर्ड का हमला
 
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने 16 सवालों के जरिए देश का मन टोटलने की कोशिश कर रहे लॉ कमीशन पर भी हमला बोला है और कहा है कि नरेंद्र मोदी सरकार पूरे देश को एक लाठी से नहीं हांक सकती क्योंकि इस देश में तरह-तरह की संस्कृति और समुदाय के लोग रहते हैं.
 
1985 में शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद मुस्लिम संगठनों के बड़े विरोध के बाद तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने कोर्ट का फैसला पलटने के लिए संसद से कानून पास करा दिया था. शाह बानो मामले को भारतीय राजनीति में अल्पसंख्यक वोट बैंक के तुष्टिकरण के उदाहरण के रूप में याद किया जाता है.
 
मोहम्मद अहमद खान VS शाह बानो केस
 
मध्य प्रदेश के इंदौर की रहने वाली 62 साल की शाह बानो जिनके 5 बच्चे थे, उनके पति मोहम्मद अहमद खान ने 1978 में उन्हें तालाक दे दिया था. अपनी और बच्चों की आजीविका का कोई साधन न होने के कारण शाह बानो ने पति से गुज़ारा भत्ता दिलाने के लिए अदालत की शरण ली थी.
 
सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि सीआरपीसी की धारा 125 हर किसी पर लागू होती है, मामला चाहे किसी भी धर्म या संप्रदाय का हो. सुप्रीम कोर्ट ने सीआरपीसी की धारा 125 के तहत अहमद खान को शाह बानो को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया. मुसलमान संगठनों ने इस फैसले को संस्कृति और अपने विधान में अनाधिकार हस्तक्षेप माना और इसका जमकर विरोध किया. 
 
सरकार ने संसद से कानून पास करके शाह बानो केस के फैसले को पलटा
 
तब कांग्रेस पार्टी सत्ता में थी जिसे संसद में पूर्ण बहुमत प्राप्त था. उसने मुस्लिम महिला (तालाक अधिकार सरंक्षण) कानून 1986 पास किया जिसने शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को उलट दिया.
 
मुस्लिम महिला (तलाक अधिकार संरक्षण कानून) 1986
 
इसके तहत एक मुस्लिम तलाकशुदा महिला इद्दत के समय के बाद अपना गुजारा नहीं कर सकती तो अदालत उसके संबंधियों को गुजारा भत्ता देने के लिए कह सकती है. ये वो संबंधी होंगे जो मुस्लिम कानून के तहत उसके उत्तराधिकारी होंगे. अगर ऐसे संबंधी नहीं हैं तो वक्फ बोर्ड गुजारा भत्ता देगा यानी पति को गुजारा भत्ता देने की जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया गया.
 
क्या कहते हैं लॉ कमीशन के चेयरमैन जस्टिस बीएस चौहान
 
ट्रिपल तलाक मामला पर लॉ कमीशन के चेयरमैन जस्टिस बीएस चौहान ने इंडिया न्यूज से कहा कि शाह बानो के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला ऐतिहासिक था लेकिन उस फ़ैसले के ख़िलाफ़ मुस्लिम संगठनों ने सरकार पर दबाव बनाया कि वो संसद में कानून लाकर इस फ़ैसले को पलटे और सरकार ने कानून बनाकर कोर्ट का फैसला बदल दिया.
 
उन्होंने कहा कि उस फैसले के बाद आए नए कानून की 2001 में सुप्रीम कोर्ट ने व्याख्या की लेकिन उससे मुस्लिम महिलाओं को बहुत लाभ नहीं मिला क्योंकि कानून के मुताबिक अगर पति पैसे देने में असमर्थ रहता था तो बोर्ड गुजारे भत्ते के लिए पैसे देता था. लेकिन बोर्ड के पास पैसे थे नहीं ऐसे में महिलाएं कहां जाएं, ये एक बड़ा सवाल था. 
 
उन्होंने कहा कि सरकार ने हमें कुछ काम सौंपे हैं, हम देखते हैं कि जनता क्या चाहती है. उन्होंने कहा कि हमें एक काम सौप गया है और हम उसे पूरा करेंगे.

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