नई दिल्ली. केंद्र सरकार ने ट्रिपल तलाक मामले का सुप्रीम कोर्ट में विरोध किया है. केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में इस मामले पर हलफनामा दाखिल करते हुए कहा है कि ट्रिपल तलाक महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव है.
ट्रिपल तलाक के प्रावधान को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई के मामले में सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार ने हलफनामा दायर कर कहा है कि ट्रिपल तलाक के प्रावधान को संविधान के तहत दिए गए समानता के अधिकार और भेदभाव के खिलाफ अधिकार के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. केंद्र ने अपने हलफनामे में कहा कि लैंगिक समानता और महिलाओं के मान सम्मान के साथ समझौता नहीं हो सकता.
महिलाओं को मूल अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता
केंद्र सरकार ने कहा है कि भारत जैसे सेक्युलर देश में महिलओं को जो संविधान में अधिकार दिया गया है उससे वंचित नहीं किया जा सकता. तमाम मुस्लिम देशों सहित पाकिस्तान के कानून का भी केंद्र ने हवाला दिया, जिसमें तलाक के कानून को लेकर रिफॉर्म हुआ है और तलाक से लेकर बहुविवाह को रेग्युलेट करने के लिए कानून बनाया गया है.
ट्रिपल तलाक, निकाह और बहु विवाह के संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार से जवाब दाखिल करने को कहा गया था. केंद्र ने कहा है कि ट्रिपल तलाक के प्रावधान के साथ-साथ हलाला और बहु विवाह के प्रावधान को चुनौती दी गई है. मामला महिला के सम्मान और जेंडर समानता का सवाल है.
समानता और जीवन का अधिकार बेसिक स्ट्रक्चर का पार्ट
केंद्र ने अपने हलफनामे में कहा है कि मूल अधिकारों के तहत संविधान के अनुच्छेद-14 में जेंडर समानता की बात कही गई है. महिला को सामाजिक, आर्थिक और भावनात्मक तरीके से हाशिये पर रखना संविधान के अनुच्छेद-15 के तहत सही नहीं होगा. महिला के आत्मसम्मान और मान-सम्मान का जो अधिकार है वह राइट टू लाइफ के तहत दिए गए अधिकार का महत्वपूर्ण पहलू है.
संविधान की भावना भी जेंडर जस्टिस की बात करता है. केंद्र ने कहा कि अगर महिलाओं को इस अधिकार से वंचित किया जाएगा तो देश की बड़ी आवादी संवैधानिक अधिकार से वंचित हो जाएगी.
केंद्र ने कहा कि लैंगिक समानता और महिलाओं के मान-सम्मान के साथ समझौता नहीं हो सकता. संविधान के अनुच्छेद-14 व 15 के महत्व को सुप्रीम कोर्ट के तमाम जजमेंट में बताया जा चुका है. समानता का अधिकार और राइट टू लाइफ और भेदभाव के खिलाफ अधिकार संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर का महत्वपूर्ण और अभिन्न अंग है.
यूएन चार्टर का हवाला
भारत यूएन के फाउंडर मेंबर में से एक रहा है और यूएन चार्टर से बंधा हुआ है. केंद्र ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावना में जेंडर समानता को मानवाधिकार माना गया है. यूएन कमिशन ने घोषित किया था कि देश, नस्ल, भाषा, धर्म अलग होने के बावजूद महिला का स्टेटस पुरुषों के समान होगा.
केंद्र ने अपने हलफनामे में वियना घोषणा का भी जिक्र किया है. सरकार ने कहा है कि वियना घोषणा में कहा गया है कि महिला के साथ किसी भी तरह का भेदभाव नहीं होगा. उसकी प्रस्तावना कहती है कि महिला के साथ भेदभाव समानता के सिद्धांत के खिलाफ है. भारत भी इसे स्वीकार चुका है.
संविधान के आर्टिकल 13 के तहत पर्सनल लॉ को देखा जाए
केंद्र ने कहा है कि जहां तक पर्सनल लॉ और मूल अधिकार की बात है तो पर्सनल लॉ को जेंडर जस्टिस, महिलाओं के मान-सम्मान को ध्यान में रखकर एग्जामिन किए जाने की जरूरत है. केंद्र ने सवाल किया है कि पर्सनल लॉ को देश की विविधताओं को देखते हुए संरक्षण दिया गया है, लेकिन क्या महिलाओं के स्टेटस, मान-सम्मान और जेंडर समानता को ताक पर रखकर इसे प्रिजर्व किया जाएगा?
सरकार ने कहा कि पर्सनल लॉ अनुच्छेद-13 के तहत देखा जाना चाहिए. अनुच्छेद-13 कहता है कि अगर कोई भी कानून मूल अधिकार के संदर्भ में सही नहीं होता है तो वह खारिज हो जाता है. बॉम्बे हाई कोर्ट ने इस मामले में फैसला दिया था कि पर्सनल लॉ अनुच्छेद-13 में कवर नहीं होता, यह असंगत है.
तलाक और हलाला धार्मिक प्रथा नहीं
सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किए गए हलफनामे में केंद्र ने कहा कि जहां तक धार्मिक स्वतंत्रता का सवाल है तो अनुच्छेद-25 इसकी बात करता है, लेकिन ट्रिपल तलाक, निकाह हलाला और बहु-विवाह जैसी प्रथाएं धर्म का हिस्सा नहीं है, ऐसे में अनुच्छेद-25 के तहत ये बातें प्रोटेक्टेड नहीं है.
केंद्र ने कहा कि भारत में धर्मनिरपेक्षता की बात है. वह बेसिक स्ट्रक्चर का पार्ट है. भारत सेक्युलर लोकतंत्र है और राज्य का कोई एक धर्म नहीं है. यहां किसी को भी मूल अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता.
पाकिस्तान व अन्य इस्लामिक देशों के कानून का हवाला
सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार ने अन्य इस्लामिक देशों के कानूनों का जिक्र करते हुए कहा कि जहां तक इंटरनेशनल प्रैक्टिस का सवाल है तो बड़ी संख्या में मुस्लिम देशों में तलाक के कानून को रेग्युलेट किया जाता है और तलाक व बहु-विवाह को रिफॉर्म किया गया है.
केंद्र ने कहा, ‘पाकिस्तान में मुस्लिम फैमिली लॉ ऑर्डिनेंस 1961 लागू है, इसका सेक्शन-6 कहता है कि दूसरी शादी बिना आर्बिट्रेशन काउंसिल के इजाजत के नहीं हो सकती. शादी के लिए ग्राउंड देना होता है. सेक्शन-7 कहता है कि तलाक के लिए इच्छित व्यक्ति को काउंसिल को बताना होगा और फिर पत्नी को नोटिस की कॉपी देनी होती है. काउंसिल समझौता कराने की कोशिश करता है नहीं होने पर तलाक होता है.’
बांग्लादेश का भी किया जिक्र
बांग्लादेश के कानूनों का जिक्र भी केंद्र ने अपने हलफनामे में किया है. केंद्र ने कहा है कि बांग्लादेश में मुस्लिम फैमिली लॉ ऑर्डिनेंस 1961 के तहत तलाक चाहने वालों को यूनियन काउंसिल को नोटिस देना होता है और फिर समझौते की कोशिश कराई जाती है और काउंसिल जब इसमें असफल होती है तो तीन महीने बाद तलाक इफेक्टिव हो जाता है.
इसके अलावा अन्य देशों का भी हवाला दिया गया. ईरान के कानून के तहत दोनों को तलाक का राइट है हालांकि पहले जज कोशिश करेंगे कि समझौता हो जाए, दूसरी शादी भी पहली पत्नी की मर्जी से किए जाने का प्रावधान है.
केंद्र सरकार ने कहा कि भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में ऐसा कोई कारण नहीं है कि महिला को उनके संवैधानिक अधिकार से वंचित किया जाए. यहां तक कि इस्लामिक देशों में भी रिफॉर्म हो रहा है, ऐसे में ट्रिपल तलाक, निकाह हलाला और बहु-विवाह को जेंडर जस्टिस, भेदभाव के खिलाफ कानून, समानता आदि के आलोक में देखा जाना चाहिए.
पर्सनल लॉ ने याचिका का किया है विरोध
पिछली सुनवाई में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने कहा था कि इस मामले में दाखिल याचिका को खारिज किया जाना चाहिए. याचिका में जो सवाल उठाए गए हैं वो जुडिशियल रिव्यू के दायरे में नहीं आते, साथ ही कहा है कि पर्सनल लॉ को चुनौती नहीं दी जा सकती.
क्या है मामला
सुप्रीम कोर्ट में ट्रिपल तलाक के खिलाफ कई याचिकाएं दायर की गई हैं. याचिका में ट्रिपल तलाक को असंवैधानिक और मनमाना बताया गया है. उत्तराखंड की शायराबानों और जयपुर की महिला व अन्य की ओर से इस मामले में अर्जी दाखिल की गई है जिस पर सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब दाखिल करने को कहा था.
एक अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट की डबल बेंच ने खुद संज्ञान लिया था और चीफ जस्टिस से आग्रह किया था कि वह स्पेशल बेंच का गठन करें ताकि भेदभाव की शिकार मुस्लिम महिलाओं के मामले को देखा जा सके. कोर्ट ने कहा था कि पति अगर मनमाने तरीके से तलाक लेता है और पहली शादी रहते हुए भी दूसरी शादी करता है तो ऐसे मामलों में मुस्लिम महिलाएं कई बार भेदभाव का शिकार होती हैं. इस मामले में संज्ञान लिया गया था और सुनवाई चल रही है.