नई दिल्ली. आज रियो ओलंपिक का आखरी दिन था. 16 दिन के इस खेल आयोजन में 125 करोड़ की आबादी वाले हमारे देश के नाम सिर्फ दो मेडल ही आ पाए. इसके लिए हमें खिलाड़ियों को जिम्मेदार मान लेना चाहिए या अपने देश में खेल और खिलाड़ियों को लेकर रखे जाने वाली सोच, मौजूदा ढांचे और बुनियादी सुविधाओं के स्तर पर सवाल उठाना चाहिए?
दरअसल विश्व की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला देश होने के बावजूद ओलंपिक जैसे आयोजनों में मैडलों की कमी के लिए हमारी पूरी व्यवस्था ही जिम्मेदार है. खेलों के मुकाबले पढ़ाई पर ज्यादा जोर देने की परम्परा, खेल के नाम पर सिर्फ क्रिकेट को लेकर दीवानगीन और लड़कियों को लेकर समाज की कुंठित सोच ऐसे हालातों के बड़े कारण है. बावजूद इसके ओलंपिक तक पहुंचने वाले हमारे खिलाड़ी अपने आप में किसी चमत्कार से कम नहीं हैं.
इस पर चीन भी एक विश्लेषण कर चुका है. इस विश्लेषण में उसने खिलाड़ियों के लिए संसाधनों की कमी, खिलाड़ियों में शारीरिक कमजोरी और खेलों को करियर के तौर पर ना देख पाने की क्षमता आदि को भारत की मैडलों के मामले में पिछड़ने की वजह माना है. यह विश्लेषण मौजूदा स्थितियों में कहीं से भी गलत नहीं दिखाई देता.
आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि हमारी सरकारें भी खेलों पर खर्च करने से कई ज्यादा शिक्षण संस्थानों पर खर्च करती हैं. इसके बाद खेलों में भारत की हालत को फिसड्डी करने का काम खेल संस्थानों पर कब्जा कर बैठे हुए राजनेता पूरा कर देते हैं.
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