महान देश भारत का एक ऐसा वर्ग जो हर दिन जीता है घुट-घुट कर

नई दिल्ली. इंडिया एक डेमोक्रेटिक देश है जहां पर आपको हर वह अधिकार मिले हैं जो एक इंसान होने के नाते मिलने चाहिए. हमारा महान देश भारत का संविधान जो अपने हर नागरिक के मूलभूत अधिकार देने की बात कहता है लेकिन क्या यह सच है? यह महान देश सच में अपने संविधान में किए वादों को पूरा कर रहा है?
ऐसा देश है जो आजादी की बात करता है लेकिन जब देने की बात आती है तो जुर्म के तराजू पर उसे तौला जाता है. प्यार कैसे गलत हो सकता है चाहे वह समलैंगिक में हो या अपोसिट सेक्स में हो, ये जुर्म कैसे? जी हां आज हम आपके बुद्धि पर पड़े पर्दे को हटाने जा रहे है जो आप समलैंगिक और किन्नर या एल.जी.बी.टी.+ (लेस्बियन गे बाइसेक्सुअल ट्रांसजेंडर) में प्यार करने वाले के बारे में सोचते हैं.
आज भारत हर राह पर विकास तो कर रहा है पर कहीं ना कहीं लोगों की सोच आज भी ज्यादा बदली नहीं है. धारा 377 के सर्मथन मे कुछ कथित तौर से महान पुरुषों नें अपना तर्क रखा है, जैसे समलैंगिकता अप्रकृतिक है, समलैंगिकता पश्चिमी सभ्यता की देन है, समलैंगिकता वैध करने से एक दिन पूरा देश समलैंगिक हो जाएगा, समलैंगिकता वैध करने से बच्चो और युवा पीढ़ी पर गलत असर पड़ेगा आदि.
योग गुरू बाबा राम देव का कहना है कि समलैंगिकता एक रोग है जिसका कोई उपचार नही है. ऐसे महान बुद्धिजीवियों को कोई इतनी सी बात क्यों नही समझाता कि समलैंगिकता एक प्राकृतिक तथ्य है यह केवल इंसानो में ही नही, बल्कि जानवरों मे भी पाया गया है. समलैंगिकता कोई सभ्यता नही जिसे अपनाया गया है बल्कि यह हजारो सालों से चला आ रहा एक प्राकृतिक तथ्य है. किसी निर्धारित उम्र मे नहीं बल्कि समलैंगिक रूझान बचपन से देखा जा सकता है.
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खुलकर बात करें
आज भारत मे कुछ समलैंगिक लोग समाज के डर से और कुछ आई.पी.सी. की धारा 377 के डर से अपनी पहचान छुपा कर ख़ुद मे ही घुट-घुट कर जी रहे हैं और एक दिन समाज मे पहचान छुपाने के लिए शादी के बंधन मे भी बंध जाते है. इस झूठे दिखावे के चलते दो जिंदगियां बरबाद हो जाती हैं. अगर हिम्मत करके वे अपने परिवार से बता देते हैं कि वे समलैंगिक हैं तो उनका परिवार समाज में प्रतिष्ठा खोने के डर से पहचान छुपाए रखने का दबाव डालता है. अगर परिवार उनका सर्मथन कर भी देता है, तो फिर लोग उस इंसान के साथ उसके परिवार का भी जीना मुश्किल कर देते है. ऐसा कानून, ऐसी दूषित सोच, जिसकी भेंट हज़ारों मासूम जिंदगियां सालों से चढ़ती आई हैं आज भी हमारे समाज मे उसका सम्मान क्यों ?
क्या है मामला
दिल्ली हाईकोर्ट ने 2009 में ऐतिहासिक फैसला देते हुए समलैंगिक संबंधों को सही ठहराया था,  लेकिन 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस फैसले को खारिज कर दिया था. गे राइट्स एक्टिविस्ट चाहते थे कि सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले की दोबारा समीक्षा करे, लेकिन कोर्ट ने उनकी पुनर्विचार याचिका भी खारिज कर दी थी.
समलैंगिक और किन्नर या एल.जी.बी.टी.+ (लेस्बियन गे बाइसेक्सुअल ट्रांसजेंडर) समुदाय की ओर है, जो भारत के नागरिक होते हुए भी यहां के संविधान से मिलने वाले अपने अधिकारों से वंचित हैं. इतना ही नही भारत के संविधान मे आई.पी.सी. (इंडियन पीनल कोड) धारा 377 के तहत समलैंगिकता को अपराध ठहराया गया है.
क्या है धारा 377
इस कानून के खिलाफ जारी संघर्ष के इतिहास की बात करें तो, दिल्ली कोर्ट ने जुलाई 2009 मे समलैंगिक सेक्स को यह कहते हुए वैध करार दिया था कि, “धारा 377 असंवैधानिक है और यह भारत के संविधान द्वारा अपने नागरिकों को दिए मूलभूत अधिकारों का अतिक्रमण है.” कोर्ट नें एल.जी.बी.टी.+ समुदाय के हक मे फैसला सुनाते हुए धारा 377 को समाप्त कर दिया था. फिर दिसंबर 2014 में आए सुप्रीम कोर्ट के महत्वपूण निर्णय ने दिल्ली कोर्ट के फैसले को खारिज करते हुए धारा 377 को वापिस बहाल कर दिया. सुप्रीम कोर्ट के इस यू-टर्न ने एक बार फिर एल.जी.बी.टी.+ समुदाय को कानून के कटघरे में खड़ा कर दिया. हाई कोर्ट के उस बेंच की अगुआई करते जस्टिस जी.एस सिंघवी ने फैसले पर दलील पेश करते हुए कहा था कि, “कानून मे बदलाव करने का हक सिर्फ कानून बनाने वालो का है, जजों का नही.”
बता दें कि हाल ही में 2 फरवरी 2016 को सुप्रीम कोर्ट ने यह विश्वास दलाया है कि भारत के संविधान में उन्हें इंसाफ के साथ अपना अधिकार और अपनी पहचान मिलेगी, लेकिन आज भी सवाल यही है कि क्या वादे पूरे होंगे. इन मासूम आंखों में झलक रहे सपने क्या साकार होंगे?
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