प्रयागराज। मकर संक्रांति के दिन पहले अमृत स्नान पर 3.5 करोड़ श्रद्धालुओं ने संगम में डुबकी लगाई। 13 अखाड़ों के साधुओं ने भी शाही स्नान किया। इसमें नागा साधु और साध्वी भी थे। नागा साधुओं के स्नान के बाद साध्वियों ने स्नान किया। क्या आपको पता है कि नागा साधुओं का जीवन कितना मुश्किल होता है। कितनी कठिन तपस्या के बाद नागा साधु और साध्वी बनते हैं। उन्हें न सिर्फ ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ता है बल्कि जननांगों का नस तक खींच लिया जाता है। ताकि वो नपुंसक बन जाए।
जीते जी पिंडदान
संस्कृत के ‘नग’ से बना नागा शब्द का मतलब होता है पहाड़। इसका अर्थ हुआ पहाड़ों और गुफाओं में रहने वाला नागा है। इस सम्प्रदाय की शुरुआत 9वीं सदी में आदि शंकराचार्य ने की थी। इन्हें दशनामी भी कहते हैं। नागा बनने की उम्र 17 से 19 साल के बीच होती है। ये तीन स्टेज में होते हैं। इन्हें परखा जाता है कि ये नागा बनने के बाद टिक पाएंगे या नहीं। अखाड़ा पूरी पड़ताल के बाद अपने यहां रखते हैं। इन्हें जीते जी खुद का पिंडदान करना पड़ता है। महाकुंभ में 108 बार डुबकियां लगानी पड़ती हैं।
खींच लेते हैं नस
‘भारत में महाकुंभ’ किताब के अनुसार शाही स्नान से एक दिन पहले जो नागा बनने वाले होते हैं, उन्हें दिगंबर की दीक्षा लेनी होती है। यह एक अत्यंत कठिन संस्कार होता है। इस दौरान बड़े-बड़े साधु रहते हैं। अखाड़े की धर्म ध्वजा के नीचे 24 घंटे बिना कुछ खाए-पिए उन्हें व्रत रखना पड़ता है। सुबह तीन बजे नागा बनाने वाले साधु के जननांग की नस खींच ली जाती है। फिर उन्हें शाही स्नान के लिए ले जाते हैं, इसके बाद वो नागा साधु बन जाते हैं। महिला नागा साधु के लिए यह और भी कठिन होता है क्योंकि कामवासना से मुक्ति के लिए उन्हें 10-12 साल तपस्या करना पड़ता है। ब्रह्मचर्य की परीक्षा में पास करने के बाद ही कोई महिला नागा साधु बनती हैं।
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