नई दिल्ली: दिवाली का पर्व नज़दीक आ चुका है, लोग अपने घरों को रंग-बिरंगी रोशनी से सजाने में लगे हुए हैं. दिवाली पर घर के हर कोने को रंग-बिरंगी रोशनी और रंगोली से सजाया जाता है, जो इसे खास बनाने में अहम भूमिका निभाती है। इसी के साथ जमकर खरीदारी भी हो रही है, चाहे […]
नई दिल्ली: दिवाली का पर्व नज़दीक आ चुका है, लोग अपने घरों को रंग-बिरंगी रोशनी से सजाने में लगे हुए हैं. दिवाली पर घर के हर कोने को रंग-बिरंगी रोशनी और रंगोली से सजाया जाता है, जो इसे खास बनाने में अहम भूमिका निभाती है। इसी के साथ जमकर खरीदारी भी हो रही है, चाहे वह नए कपड़े हों या फिर उपहार। हालांकि, पटाखों का चलन भारतीय परंपरा में नहीं था। आइए जानते है इसके पीछे का क्या इतिहास है.
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, दिवाली का पर्व भगवान श्रीराम के 14 वर्षों के वनवास के बाद अयोध्या वापसी का प्रतीक है। उस समय अयोध्यावासियों ने घी के दीप जलाकर उनका स्वागत किया था और इसी दिन से अमावस्या की रात को दीयों को जलाने की परंपरा शुरू हुई। इस साल दिवाली 31 ऑक्टूबर 2024 को मनाई जाएगी। वहीं इतिहासकारों के अनुसार, दिवाली पर आतिशबाजी का चलन मुगलकाल में शुरू हुआ। ऐसा कहा जाता है कि सातवीं सदी में चीन में पटाखों का आविष्कार हुआ था और धीरे-धीरे यह परंपरा भारत समेत अन्य देशों में भी लोकप्रिय हो गई। बता दें भारत में पटाखों का इस्तेमाल मुगलों के शासनकाल के दौरान ही शुरू हुआ था, जब बारूद का प्रयोग होने लगा।
बेशक दिवाली को अंधकार पर प्रकाश की विजय के रूप में मनाया जाता है और इस दिन पूजा-पाठ, दीप प्रज्वलन जैसे धार्मिक अनुष्ठानों का विशेष महत्व है। आतिशबाजी के शोर और चमक का धार्मिक अनुष्ठानों से कोई संबंध नहीं है। चीन में पटाखों को बुरी आत्माओं को भगाने का प्रतीक माना गया और इसी मान्यता के साथ यह चलन भारत में आया। हालांकि समाज में पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ने के साथ कई लोग दिवाली को इको-फ्रेंडली तरीके से मनाने के प्रयास कर रहे हैं, ताकि पटाखों से होने वाले प्रदूषण को कम किया जा सके।
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