नोटबंदी के बाद से बैंक और एटीएम की धक्का मुक्की के बीच आपका ध्यान शायद इस ओर नहीं गया हो लेकिन यह बेहद कमाल की बात है कि 'रुपया बनाने में बहुत सारा रुपया खर्च होता है.
नई दिल्ली. नोटबंदी के बाद से बैंक और एटीएम की धक्का मुक्की के बीच आपका ध्यान शायद इस ओर नहीं गया हो लेकिन यह बेहद कमाल की बात है कि ‘रुपया बनाने में बहुत सारा रुपया खर्च होता है.’
यहां रुपया बनाने का मतलब मुद्रा को तैयार करने से है. इसके लिए काम में आने वाला ख़ास कागज़, स्याही, छपाई की पूरी प्रक्रिया अच्छे-खासे खर्च की मांग करती है. यही वजह है कि डेनमार्क और कुवैत दो ऐसे देश हैं जो अपनी मुद्रा अपने देश में तैयार नहीं करते लेकिन भारत में ऐसा नहीं होता.
QUARTZ india में छपी रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक और उपभोग करने वाला देश भारत अपनी मुद्रा खुद छापता है लेकिन मुद्रा को तैयार करने के लिए इस्तेमाल में आने वाले कच्चे माल का एक बहुत बड़ा हिस्सा बाहर से आयात किया जाता है. जैसे कि पैसों की छपाई के लिए काम में आने वाला वाटरमार्क पेपर की 95 % आपूर्ति जर्मनी की Giesecke & Devrient और ब्रिटेन की De La Rue से की जाती है.
भारत में इस कागज़ का साल भर में 22000 मैट्रिक टन तक इस्तेमाल होता है और यह मुद्रा को तैयार करने में आने वाले कुल खर्च का 40 % होता है. जून 2016 के अंत तक आरबीआई ने देश भर में 21.2 बिलियन बैंक नोट्स सप्लाई किये थे और इसका छपाई का खर्च ही 3,421 करोड़ रूपये था.
इस बड़े खर्च की वजह से ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसे अपने मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट में जोड़ा और आरबीआई से कागज और स्याही की पूर्ती अपने ही देश में करने को कही. इस हफ्ते भारत में लोग जो 500 और 2000 के नए नोट अपने हाथों में ले रहे हैं वह आरबीआई की कर्नाटक के मैसूर में स्थित प्रेस में छपे हैं. इसमें इस्तेमाल होने वाला कागज भारत में ही तैयार किया गया है. हालांकि कितना कागज देश में बनाया गया है इस पर आरबीआई की ओर से कोई जानकारी नहीं मिली है लेकिन यह मुद्रा तैयार करने में भारत के लिए एक बड़ा मील का पत्थर है.
रूपये का इंग्लैड से नासिक तक का सफर
ब्रिटेन की औपनिवेशिक सरकार ने सबसे पहले 1862 में रूपये का नोट जारी किया था. उस समय यह ब्रिटेन की ही Thomas De La Rue नाम की कम्पनी से छपवाया गया था जो कि आज मुद्रा तैयार करने के व्यवसाय में सबसे प्रमुख कम्पनी है. उस से पहले यह कंपनी ताश और स्टाम्प आदि प्रकाशित करने का काम करती थी. आज इसे De La Rue नाम से जाना जाता है.
सन 1920 में अंग्रेजों से सबसे पहले देश में अपनी मुद्रा प्रकाशित करने का फैसला लिया था और 1926 में नासिक में देश की पहली नोट छापने वाली प्रेस की शुरुआत हुई. इसके दो साल बाद नासिक की इस प्रेस ने 5 रूपये का नोट छापना शुरू कर दिया था और जल्द ही देश भर में इस्तेमाल के लिए 100, 1000 और 10000 के नोट की छपाई होने लगी.
1947 में अंग्रेजों के भारत को आज़ाद करने के बाद भी लंबे समय तक नासिक की ही यह प्रेस नोटों की छपाई करती रही और 1975 में जा कर देश की दूसरी नोट छापने वाली प्रेस की स्थापना की गयी. दूसरी प्रेस मध्यप्रदेश के देवास में शुरू की गयी. यह दो प्रेस लंबे समय तक भारत की रुपयों की जरुरत को पूरा करती रही. इसके बाद 1999 में पश्चिम बंगाल के सलबोनी में और एक मैसूर में ही नई प्रेस शुरू की गयी.
लेकिन देश को वॉटरमार्क वाले कागज बनाने की भी जरुरत थी. इसके लिए 1968 में मध्यप्रदेश के होशंगाबाद में मिल लगाईं गयी थी लेकिन उसकी क्षमता सिर्फ 2,800 मैट्रिक टन कागज के उत्पादन की थी. इसके बाद पिछले पचास सालों से दुनिया भर के अलग अलग देशों से बाकी के कागज की पूर्ती की जा रही थी. इसमें बड़ा बदलाव मोदी सरकार के आने के बाद 2015 में हुआ जब होशंगाबाद में नई प्रोडक्शन लाइन जोड़े जाने से इसकी उत्पादन क्षमता 12,000 मैट्रिक टन हो गयी. इससे रुपया तैयार करने के लिए इस्तेमाल में आने वाले कागज़ की बड़ी आपूर्ति यहां से होने लगी है लेकिन इसमें पूरी तरह से आत्मनिर्भर होने में अभी कुछ समय और लगेगा.