कास्ट – विनीत कुमार सिंह, जोया हुसैन,जिमी शेरगिल, रवि किशन
डायरेक्टर- अनुराग कश्यप
प्रोड्यूसर– आनंद एल राय, अनुराग कश्यप, विक्रमादित्य मोटवानी, मधु मनेतना
लेखक- अनुराग कश्यप, विनीत कुमार सिंह, मुक्ति सिंह श्रीनत, केडी सत्यम, रंजन चंदेल, प्रसून मिश्रा
रेटिंग– 3 स्टार
मुंबई. भारत में फिल्ममेकर्स की सामने सबसे बड़ी मुश्किल आती है कि फिल्म खड़ी तो वो कर लेते हैं, लेकिन क्लाइमेक्स ऐसा क्या लाएं जिससे कि दर्शक स्माइल या सैटिस्फेक्शन का भाव लेकर हॉल से बाहर निकले. पिछले साल शाहरुख की ‘रईस’ और ‘हेरी मेट सेजल’ जैसी फिल्में इसका बड़ा उदाहरण हैं, वहीं शाहरुख की डॉन का रीमेक एक क्लासिक उदाहरण था और टाइगर जिंदा है एक सेफ तरीका. लेकिन लगता है मुक्काबाज भी बेहतरीन तरीके से खड़ी करने के बाद ‘रईस’ के रास्ते चली गई लगती है, जितनी मेहनत अनुराग कश्यप ने अपनी फिल्म में बिसाहड़ा कांड, गौरक्षक या भारत माता की जय पर सवाल उठाने में खर्च की, उतने से काफी बेहतरीन क्लाइमेक्स प्लान किया जा सकता था. अवॉर्ड्स के लिए ऐसा क्लाइमेक्स मुफीद हो सकता है, लेकिन आम दर्शक को शायद ही पसंद आए.
फिल्म की कहानी मिथुन की बॉक्सर के उलट महानगरों की बजाय बरेली जैसे छोटे शहरों के बॉक्सर्स को लेकर लिखी गई है. फिल्म के करेक्टर्स, उनका रहन सहन और बोलने का स्टाइल और छोटे शहरों के खिलाड़ियों की परेशानियों को देखकर लगेगा कि फिल्म को वाकई में काफी रिसर्च के बाद तैयार किया गया है. छोटे परिवार का श्रवण (विनीत कुमार सिंह) बॉक्सर बनने चाहता है, लेकिन बॉक्सर एसोसिएशन पर कब्जा है एक नेता भगवान दास मिश्रा (जिमी शेरगिल) का, जो पूर्व बॉक्सर है. श्रवण ढंग से भगवान की चमचई नहीं कर पाता और उससे झगड़ जाता है. भगवान उसका कैरियर तबाह करने की धमकी देता है, इधर श्रवण की आँख लड़ जाती है भगवान की भतीजी सुनयना (जोया) से जो गूंगी है. विनीत किसी तरह वाराणसी से बॉक्सिंग में स्टेट के लिए जाता है, जिसमें उसकी मदद वहां का कोच रविकिशन करता है और स्टेट जितवा देता है. भगवान की भतीजी से उसकी मर्जी के खिलाफ शादी भी कर लेता है, और फिर किस तरह भगवान अपनी भतीजी को अगवा करके श्रवण का रास्ता नेशनल के लिए रोकता है यही है कहानी.
जिमी शेरगिल की ये अब तक की सबसे बेहतरीन फिल्मों में हो सकती है, अपने गेटअप खासकर आंखों में मेकअप के जरिए जिम्मी ने खुद को और कमीना बनाया है, इससे अगली पीढ़ी के विलेन्स में अपनी जगह मजबूत कर ली है. विनीत सिंह और जोया के लिए बतौर लीड ये पहली फिल्म है, दोनों ही काफी स्वभाविक लगे हैं, और यही उनकी एक्टिंग की जीत है. नदिया के पार वाली साधना सिंह अरसे बाद जोया की मां के रोल में हैं, बाकी सभी किरदार मजबूत हैं. फिल्म के डायलॉग्स भी उसी तरह के देसी हैं, जैसे अनुराग कश्यप की फिल्मों में होते हैं. लेकिन हगना, मूतना, पिछवाड़ा जैसे शब्दों का ज्यादा इस्तेमाल लोगों को बहुत अपील भी नहीं करता. हालांकि कुछ सींस पर आपके ठहाके छूटेंगे, दिक्कत फिल्म की लम्बाई से भी होती है, 2 घंटे 25 मिनट की फिल्म है ये, जो शर्तिया छोटी हो सकती थी.
फिल्म के म्यूजिक के लिए अनुराग ने नए चेहरे पर दाव लगाया है, रचिता अरोरा को. सुनील जोगी की कविता मुश्किल है अपना मेल प्रिये का बढिया इस्तेमाल किया है, विनीत सिंह ने अधूरा मैं और पैंतरा दो गाने लिखे हैं. गाने देसी और अच्छे बन पड़े हैं, बशर्ते फिल्म चले. और फिल्म अगर नहीं चलेगी तो उसकी एक बड़ी वजह फिल्म का क्लाइमेक्स भी होगा. हारे हुए या साजिशों से हराए हुए, जबरन कैरियर खराब किए हुए बॉक्सर्स के लिए बनी इस फिल्म का क्लाइमेक्स अवॉर्डस में तो पसंद किया जाएगा, लेकिन आम भारतीय दर्शक के लिए ये आप शर्तिया तौर पर नहीं कह सकते. कई तरह की छोटी छोटी बातें समझ भी नहीं आतीं, खास तौर पर जिम्मी शेरगिल का किरदार एमपी है, एमएलए है, पूर्व बॉक्सर है, कोच है या बॉक्सिंग एसोशिएसन का सर्वेसर्वा. बरेली में ही नेशनल चैम्पियनशिप हो रही होती है, वाराणसी का कोच बरेली में कैसे कोचिंग देना शुरू कर देता है, बरेली में बिहार की या पूर्वी उत्तरप्रदेश की भाषा ही क्यों इस्तेमाल होती है, गैंग्स ऑफ वासेपुर के भूमिहार इस फिल्म में भी घुस जाते हैं. जिसके चलते लोग बीच बीच में कन्फ्यूज भी रहते हैं.
ऐसा भी लगता है अनुराग का ध्यान राइट विंग वालों पर भी फोकस था, शायद फिल्म को विवादित बनाने के लिए. फिल्म का पहला सीन ही गौ रक्षकों के ट्रकवालों की धरपकड़ और मारपीट से शुरु होता है, जो ट्रकवालों से जबरन कुबूलवाते हैं काटने के लिए ले जा रहे थे. फिल्म में विलेन का नाम ही भगवान था, जिसे कई बार भगवानजी कहा जाता है, भगवान की एंट्री से पहले मीट धोते लड़के बोलते हैं, 2 किलो मीट तो अकेले भगवानजी ही खा जाएंगे. उसके बाद हीरो का डायलॉग विलेन के बारे में ये होता है कि किसी को भी पीट कर भारत माता की जय के नारे लगा देते हैं, गोरक्षकों को भी उसी नेता का गुर्गा दिखाया जाता है. कुल मिलाकर विलेन को राइट विंगर दिखाने की कोशिश थी. रही सही कसर दादरी के बिसाहड़ा गांव के अखलाक कांड जैसा सीन डालकर कर दी जाती है, वही मंदिर से ऐलान, घर में घुसकर जानलेवा हमला, बस बीफ की जगह बडेका कर दिया जाता है. लेकिन सेंसर बोर्ड ने फिल्म को ना रोककर फिल्म को विवादों में लाने से रोक दिया.
अनुराग ने सेंसर बोर्ड, प्रसून जोशी और स्मृति ईरानी की इसके लिए तारीफ भी ट्वीट के जरिए की. लेकिन ये फिल्म जिस तरह छोटे शहरों के खिलाड़ियों की दिक्कतों और स्पोर्ट्स फेडरेशंस की घटिया राजनीति और खिलाडियों के खराब होते कैरियर के बैकग्राउंड में बनाई गई थी, उसको और बेहतर तरीके से अपनी बात को कह सकती है. क्योंकि वाकई में इस फिल्म से पूरे माहौल की एक अच्छी तस्वीर मिलती है, लेकिन राइट विंग एजेंडा और स्पोर्ट्स फेडरेशन की राजनीति दोनों के बीच फिल्म के सैंडविच बनकर रह जाने का ज्यादा अंदेशा नजर आ रहा है. खासकर तब जब आप नए चेहरों पर दांव लगा रहे हों, ज्यादा सावधानी की जरूरत थी.
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