जो मजा बनारस में, वो ना पेरिस में ना फारस में. इस मूवी को देखेंगे तो वाकई में आपको ऐसा लगेगा. अगर आप छोटे शहर या कस्बे से ताल्लुक रखते हैं तो आपको काफी कुछ किरदार और खासतौर पर देश की दूसरी संसद ‘पप्पू की दुकान’ में हो रही परिचर्चा जानी पहचानी लगेगी, जाना पहचाना अगर कुछ नहीं होगा तो सनी देयोल और साक्षी तंवर का यो रूप जो आपने पहले कभी नहीं देखा होगा. ढाई किलो के हाथ के लिए मशहूर सनी देयोल इस मूवी में मुंह से जरूर मिसाइल छोड़ते दिखेंगे, गालियों की मिसाइल, साक्षी तंवर भी इस मामले में पीछे नहीं रही हैं. आप अब तक की उनकी जमीजमाई इमेज को भूल जाएंगे.
काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ पर बनी इस मूवी को डायरेक्टर किया है चाणक्य और पिंजर फेम डायरेक्टर डा. चंद्रप्रकाश द्वेदी ने. कहानी है एक ऐसे धर्मपरायण पंडित धर्मनाथ पांडे (सनी देयोल) की जिससे उसकी पत्नी सावित्री (साक्षी तंवर) इसलिए परेशान रहती है क्योंकि वो परम्पराओं के पालन के चक्कर में केवल यजमानी और संस्क़ृत पाठशाला में शिक्षक की नौकरी से घर चलाने लायक पैसा नहीं कमा पाता. ना खुद विदेशियों को अपने घर में किराए पर रखने देता है और ना मोहल्ले वालों को, तो अतिरिक्त कमाई भी नहीं होती. लेकिन समय की मार उसे ऐसा करने पर मजबूर कर देती है, लेकिन इसके लिए वो शिवलिंग को उठाकर छत पर स्थापित करने का मन बनाता है, जो उस कोठरी में रखा था. उसके ऐसा मूड बनाते देखकर ब्राह्मणों का पूरा मोहल्ला अपने अपने घरों की कोठरियां विदेशियी सेलानियों के लिए खाली करने के लिए शिवलिंग को गंगा घाट या चौक पर ले जाने लगते हैं. वाराणसी के पंडों के घरों से शिव का वास हट जाएगा, यही कहानी है.
कहानी का एक बड़ा किरदार है पप्पू की चाय की दुकान, जिसके बारे में मशहूर है कि देश में दो पार्लियांमेंट हैं, एक दिल्ली में और दूसरी पप्पू की दुकान. संघी, कम्युनिस्ट, कांग्रेसी हर विचार के लोग यहां रोज संसद की तरह बहस करते हैं, गाली गलौज करते हैं (जो कि अस्सी घाट की राष्ट्रभाषा है) और फिर बिना कुछ भी मन में रखे फिर अगले दिन मिलते हैं. ये परम्परा आजकल सौशल मीडिया पर छोटी छोटी बातों पर एक दूसरे को ब्ल़ॉक कर रहे लोगों के लिए अच्छा मैसेज है.
इस फिल्म की दूसरी खासियत है इसके किरदार, सौरभ शुक्ला एक पंडे के किरदार में हैं, मुकेश तिवारी रामभक्त संघी हैं, सनी देयोल भी राम मंदिर आंदोलन में गोली खाने अयोध्या जाते हैं, राजेन्द्र गुप्ता लिबरल हैं संघियों के घोर विरोधी, रवि किशन एक टूरिस्ट गाइड के तौर पर हैं, जो विदेशियों को गंगा किनारे की कुटिया दिलाकर कमीशन खाते हैं. मिथिलेश चतुर्वेदी संसद के स्पीकर के तौर पर हैं.. साइलेंट प्लीज की जगह बोलते हैं… चुप रह भो*%*$ के.
गैंग्स ऑफ वासेपुर में महिलाएं गाली नहीं देती थीं, इसमें महिला पुरुष का कोई भेद नहीं था. कहानी वैसे भी 1988 से 1998 के बीच की है, सो मोबाइल फोन या ह्वाट्स एप के जमान की नहीं है, नहीं तो और मजेदार होती. फिर भी राममंदिर से लेकर मंडल आयोग आंदोलन तक तमाम गंभीर विषयों को छोटे शहरों की चौपालों पर कैसे हवा में उड़ा दिया जाता है, वो आप मोहल्ला अस्सी से सीख सकते हैं, आप ये भी समझ सकते हैं कि कैसे परम्पराओं में ढला समाज तेजी से बढ़ती तकनीकी और उपभोक्तावाद में फंस कर कसमसा रहा है.
कुल मिलाकर चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने अच्छी कोशिश की है काशीनाथ सिंह के लिखे को परदे पर उतारने की, बनारसी की असली आत्मा दिखाने की, किरदारों को उनके मूल चरित्र और स्वभाव के साथ पेश करने की, ये अलग बात है कि आपसी विवाद में थोडा लेट गो गई ये मूवी. साक्षी तंवर ने इस मूवी में कमाल कर दिया है, सनी देयोल भी अलग किरदार मे नजर आए हैं, रवि किशन भी असर छोडते हैं और बाकी सभी किरदार भी. सो एक अलग किस्म की मूवी वो भी खासतौर पर ऐसे शहर की हो, जिसके बारे में पूरा देश चर्चा करता आ रहा हो को एक बार देखना उतना बुरा नहीं होगा.
स्टार- ***
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