बॉलीवुड डेस्क, मुंबई. बॉलीवुड डेस्क, मुंबई. Manto Movie Review: बायोपिक बनाने के दो तरीके हैं, मसाले मिलाकर उन्हें हर आम ओ खास के लिए बना दिया जाए या फिर एक खास बुद्धिजीवी वर्ग के लिए समेट दिया जाए। शायद नंदिता दास ने ये फिल्म दूसरे वर्ग के लिए बनाई है, या फिर उनके लिए जिन्होंने कभी ना कभी सआदत हसन मंटो का नाम सुन रखा है, लेकिन उनके बारे में जानते नहीं। ऐसे में मंटो की शख्सियत कितनी बड़ी थी, उसे भी दिखाने में चूक गईं नंदिता, क्योंकि या तो उनको लग रहा था सब जानते हैं या फिर उनका टारगेट ऑडियंस ही खास था.
लेकिन नंदिता दास की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने फिल्म के बैकग्राउंड से लेकर, बेहरतीन कलाकारों, यहां तक गेस्ट रोल में भी, को लेकर मंटो की कहानियों और कहानियों में उनके मशहूर अल्फाजों को कायदे से पिरोया है. फिल्म की कहानी है कि कैसे मंटो जिनकी अम्मी, अब्बा और बेटा जिस शहर मुंबई में दफन था, जिस मुंबई ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और कई फिल्मों की कहानियां लिखने का मौका दिया, उसी शहर को विभाजन के बाद एक दूसरे के प्रति पैदा हुई नफरत और शक शुबह के चलते छोड़ना पड़ा.
लेकिन पाकिस्तान में उनको वो इज्जत नहीं मिल पाई, जो भारत में मिला करती थी। उसकी वजह थी ना तो मंटो एक धार्मिक ढांचे में अपनी कलम को पाबंद कर सकते थे और ना ही प्रोग्रेसिव राइटर्स यूनियन को खुश कर सकते थे। विभाजन पर उनकी उम्दा कहानियों से ज्यादा उनकी तथाकथित अश्लील कहानियां उनके लिए मुसीबत बन गई. ठंडा गोश्त कहानी को लेकर उनके खिलाफ केस कर दिया गया, फैज अहमद फैज तक ने उसे लिटरेचर मानने से मना कर दिया. आज अनुराग कश्यप की मूवीज में जिन गालियों पर लोग तालियां पीटते हैं, तब मंटो की कहानियों में उन गालियों पर केस लाद दिए गए और मंटो आर्थिक रूप से परेशान हो गए। कभी प्राण, अशोक कुमार और श्याम चड्ढा जैसे सुपरस्टार के कैरियर में मदद करने वाले मंटो ने किसी से पैसा लेना भी ठीक नहीं समझा और शराब की लत के चलते 42 साल की उम्र में ही इस दुनियां से विदा हो गए।
इस मूवी में मंटो के रोल में नवाजुद्दीन सिद्दीकी तो बेहरतीन हैं ही, उनके दोस्त श्याम के रोल में ताहिर राज भसीन और उनकी पत्नी के रोल में रसिका दुग्गल भी परफैक्ट थीं. श्रषि कपूर, परेश रावल, दिव्या दत्ता, जावेद अख्तर और रणवीर शौरी जैसे कई कलाकार गेस्ट रोल में थे। ऐसे में फिल्म कहीं से कमजोर नहीं पडती लेकिन क्लाइमेक्स ऑडियंस को पसंद नहीं आया, वो और बेहतर हो सकता था.
बावजूद इसके मंटो के चाहने वालों के लिए, मंटो को जानने वालों के लिए या उनके बारे में जानने की इच्छा रखने वालों के लिए, विभाजन के इतिहास और साहित्य में रुचि रखने वालों के लिए भी इस फिल्म को जरुर देखना चाहिए। नंदिता दास को मंटो को बड़े परदे पर उम्दा तरीके से पेश करने का क्रेडिट तो मिलना ही चाहिए। फिर भी लगा कि मंटो कहीं ना कहीं अधूरे ही रह गए.
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