नई दिल्ली: राजकुमार राव की फिल्म न्यूटन का अभी पहले दिन पहला शो ही खत्म होके चुका था कि खबर आई उसे भारत की तरफ से ऑस्कर के लिए ऑफीशियल एंट्री के बतौर चुन लिया गया है. यूं तो राजकुमार राव और पंकज त्रिपाठी उम्दा कलाकार हैं और न्यूटन के जितने रिव्यू आए, ज्यादातर ने इसे अवॉर्ड फेस्टीवल्स की फिल्म माना, फिर भी सभी को इस खबर से काफी हैरत हुई. आखिर इतनी भी जल्दी क्या थी?
आखिर ऑस्कर के लिए भेजा जाना है, बाकी लोग तो फिल्में देख लें, और तय कर लें कि ये वाकई उतनी दमदार है कि नहीं, ऑस्कर के लिए सभी क्राइटेरिया में खरी उतरती है कि नहीं. लेकिन अब चर्चा चल रही है कि ऑस्कर का सबसे बड़ा क्राइटेरिया होता है फिल्म की स्टोरी का यूनिक होना और उसी पर न्यूटन खरी नहीं उतर रही, इसे एक ईरान फिल्म से कॉपी बताया जा रहा है.
न्यूटन को जिस ईरानी फिल्म से इंस्पायर्ड बताया जा रहा है, उसका नाम है- सीक्रेट बैलट. जिसे बबक पयामी ने डायरेक्ट किया था और ये फिल्म 16 साल पहले यानी 2001 में रिलीज हुई थी. पर्शियन लेंग्वेज की इस फिल्म को इटली, कनाडा और स्विटजरलैंड में भी रिलीज किया गया था. इस फिल्म की कहानी भी एक इलेक्शन एजेंट की थी, जो रोल इस फिल्म में एक लडकी ने प्ले किया था. जो एक बहुत दूर के आइलैंड पर इलेक्शन करवाने जाती है, जिसमें केवल दो पुलिस वालों की चौकी है.
उस आइलैंड पर ज्यादातर ऐसे लोग होते हैं, जो पर्सियन नहीं बोलते, ज्यादातर अनपढ़ किसान हैं. सैनिकों को उम्मीद थी कि कोई लड़का इस काम के लिए आएगा, क्योंकि जगह स्मगलरों के चलते अनसेफ है, दूसरे ये लड़की जरूरत से ज्यादा ईमानदार है, हर वोटर के पास पहुंचना चाहती है, कुछ लोगों के वोट से राजी नहीं.
तमाम लोग ऐसे हैं, जिनके पास वोटिंग राइट नहीं है तो कई उन उम्मीदवारों को वोट नहीं डालना चाहते, तो कोई उसी के नाम से वोट डाल देता है, ज्यादातर कट्टर इस्लाम को मानने वाले हैं. कोई कम उम्र की लडकियों को ही वोट डालने को बोलता है कि जब 12 की उम्र में शादी कर सकती है तो वोट क्यों नहीं डाल सकती. वो सोल्जर लड़की की जिद और ईमानदारी से फ्रस्टेटिड होता है औऱ लड़की वहां के लोगों से और स्मगलर्स के अटैक का खतरा अलग से.
न्यूटन में भी बिलकुल यही होता है, कुछ बदलावों के साथ. उस लडकी की जगह इलैक्शन ऑफिसर राजकुमार राव है, जो दो साथियों के साथ हैलीकॉप्टर में छत्तीसगढ़ के घने जंगलों में नक्सली इलाके के एक गांव में 67 लोगों के वोट डलवाने जाता है. ईरान वाली लडकी बैलेट बॉक्स लेकर गई थी, राजकुमार राव ईवीएम लेकर आता है, बिलकुल वैसी ही भाषा की समस्या, बिलकुल वैसे ही गाव वालों के सवाल, उसको सिक्योरिटी दे रहे ऑफिसर पंकज त्रिपाठी से लगातर झगड़ा, राजकुमार राव की ईमानदारी और एक एक वोट डलवाने की जिद.
छोटे मोटे बदलाव हों भी तो, मूल स्टोरी तो दोनों की एक ही लगती है. ऐसे में कोई न्यूटन को ऑस्कर क्यों देगा? इस फिल्म को भी 2001 में तमाम अवॉर्ड मिले थे, न्यूटन को भी बर्लिन फिल्म फेस्टीवल में एक अवॉर्ड मिला है. सबसे दिलचस्प बात है कि जो डायरेक्टर है, अमित उसी ने फिल्म की स्टोरी भी लिखी है. यानी केवल अमित को पता था कि स्टोरी किसी से इंस्पायर्ड है कि नहीं.
जबकि अमित अभी बॉलीवुड में नए हैं, इसलिए दिल्ली में जब सारे फिल्म क्रिटिक फिल्म का रिव्यू कर रहे थे, तो वो उनका रिएक्शन देखने के लिए उनके बीच भी शो में मौजूद रहे. हालांकि गुरुवार की जगह फिल्म का रिव्यू सोमवार को ही हो जाना भी काफी हैरत भरा था.
उससे भी ज्यादा दिलचस्प बात ये है कि न्यूटन में नक्सली सिस्टम और सरकार के बजाय हिंदू फासीवादियों के खिलाफ नारे लिख रहे हैं, और बीजेपी की तर्ज़ पर ओबामा के फोटो के साथ चुनावों में भारतीय विकास पार्टी का बैनर दिखाया गया.
साफ था बीजेपी का मजाक उड़ाया गया है फिल्म में, फिर भी उसी बीजेपी की केन्द्र सरकार ने ना केवल एक करोड़ रुपए की सहायता का ऐलान किया , बल्कि इस फिल्म को ऑस्कर के लिए भी भेजा. तो क्या इस बार 4 मार्च 2018 को होने वाले ऑस्कर अवॉर्ड समारोह में हम पहले से ही हार मान लें? कम से कम सोशल मीडिया पर न्यूटन पर उठने वाले सवाल तो इसी तरफ इशारा कर रहे हैं.