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FILM REVIEW: अवॉर्ड, फेस्टिवल्स और अलग हटकर देखने वालों के लिए बनी है ‘न्यूटन’

मुंबई: एंटरटेनमेंट के लिए देखने के लिए इस हफ्ते भूमि और हसीना जैसी स्टार वैल्यू वाली फिल्में होंगी, लेकिन हट के देखने वालों के लिए होगी न्यूटन. अगर आप कम उम्मीदों के साथ ये फिल्म देखने जाएंगे तो आपको ये फिल्म पसंद आएगी, हालांकि ये और बेहतर हो सकती थी अगर क्लाइमेक्स तक आते आते डायरेक्टर सरेंडर ना करता.
कुछ लोगों को ये फिल्म किसी डॉक्यूमेंट्री का बॉलीवुड वर्जन भी लग सकती है, लेकिन नेशनल अवॉर्ड्स और विदेशी फिल्म फेस्टीवल्स के लिए परफैक्ट मूवी है न्यूटन. कहानी है नूतन कुमार नाम के एक सरकारी क्लर्क यानी राजकुमार राव की, जो पसंद ना आने पर अपना नाम बदलकर न्यूटन कर लेता है. उसकी हर स्माइल, हर डायलॉग और हर भाव में ईमानदारी टपकती है, उसको मौका मिलता है छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित और घने जंगल में बसे एक गांव के 76 लोगों की वोटिंग करवाने का.
ना फोर्स वहां जाने को राजी थी और ना नक्सलियों के खौफ से गांव वाले वोट डालने को. तो पूरी फिल्म गांव के लिए निकलने, फोर्स के ऑफिसर्स से भिड़ने, गांव वालों को बमुश्किल वोटिंग के लिए समझाने और वोटिंग करवाने में खर्च हो गई, ना रोमांस, ना एक्शन, ना कोई व्यक्तिगत इमोशंस, थी तो बस एक जिद और थोड़े से व्यंग्यात्मक डॉयलॉग्स.
राजकुमार राव के अलावा पंकज त्रिपाठी फोर्स इंचार्ज आत्मा सिंह के तौर पर हैं, जो किसी भी तरह जल्द से जल्द बिना किसी टकराव के जंगल से निकलने के मूड में हैं, दोनों के बीच डायलॉगबाजी ही फिल्म की जान है. जिसमें रघुवीर यादव अपनी लतीफुल्लों से बीच बीच में फिल्म का पेस बनाए रखते हैं, तो स्थानीय बीएलओ माल्को के रोल में अंजलि पाटिल बीच बीच में इमोशनल कमेंट मारती रहती हैं. कहना चाहती है कि आदिवासियों को ना तो माओवादी चाहिए और ना ही फोर्स.
फिल्म एक तरह से व्यवस्था पर सवाल है कि कैसे वहां के पुलिस अधिकारी इंटरनेशनल मीडिया के आने पर एक्शन में दिखते हैं, हकीकत में उनको कोई लेना देना नहीं है, बस अपनी जान की फिक्र है. माओवादी नहीं चाहते कि कोई भी जननेता वोट से चुनकर बने तो आदिवासी अपने कानून चलाना चाहते हैं. ऐसे में कई बार इशारों में बहुत कुछ कहती दिखती है फिल्म, जो फिल्मकार की पर्सनल समझ और एजेंडा भी दिखाती है. स्कूल और गांवों को फोर्सेज ने जलाया इसका कोई लॉजिक नहीं दिखाते.
स्कूल की दीवारों पर हिंदी में नक्सलियों के नारे लिखे हैं, जो आमतौर पर नहीं होते. उन पर सरकार, पुलिस या सेना के खिलाफ नारे लिखे होने के बजाय हिंदू फासीवादियों के खिलाफ नारे लिखना और प्रचार के लिए लगे बैनर में एक भारतीय विकास वादी पार्टी के पोस्टर पर प्रत्याशी के साथ ओबामा का फोटो और फूल चुनाव चिन्ह का दर्शाना भी एजेंडे जैसा लगता है, जबकि फिल्म की मूल कहानी से उसका कोई लेना देना नहीं.
फिल्म व्यवस्था पर कमेंट करते हुए आगे बढ़ती है, वो कमेंट आपको गुदगुदाते भी हैं, लेकिन डायरेक्टर का एजेंडा अगर वाकई में इस कॉमर्शियल फिल्म बनाने का होता तो उसी तरह के मसाले भी उसमें डालता. आइटम सोंग की छोड़िए, गाना ही एक है. डायरेक्टर ने क्लाइमेक्स पर भी कोई खास मेहनत करने के बजाय उसे ऐसे ही छोड़ दिया है, शायद अवॉर्ड लेने के लिए ये जरूरी भी था.
एक्टिंग के मामले में राजकुमार राव और पंकज त्रिपाठी पर लगातार शानदार फिल्में देने की वजह से शक करना बंद कर देना चाहिए, दोनों ही शानदार हैं. रघुवीर यादव और संजय मिश्रा तो पहले से ही उस ग्रुप में शामिल हैं, अंजलि पाटिल भी अपने रोल में फिट हैं. तो हटकर देखने वालों के लिए ये बेहतरीन फिल्म है, एंटरटेनमेंट के लिए फिल्म देखने के शौकीन दूर ही रहें.

 

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