Advertisement
  • होम
  • मनोरंजन
  • …जब हृषिकेश मुखर्जी के घर में 9 महीने रही वो अनजान लड़की

…जब हृषिकेश मुखर्जी के घर में 9 महीने रही वो अनजान लड़की

अमिताभ बच्चन और धर्मेन्द्र को बिना मारधाड़ के घरेलू फिल्मों में देखना चाहते हैं तो हृषिकेश मुखर्जी की फिल्में देखिए, गुड्डी, चुपके-चुपके, अभिमान, मिली या फिर राजेश खन्ना की बावर्ची या आनंद. एक से बढ़कर एक कॉमेडी फिल्में दीं हृषिकेश मुखर्जी ने चाहे वो गोलमाल हो या फिर चुपके-चुपके

Advertisement
  • August 26, 2017 6:11 pm Asia/KolkataIST, Updated 7 years ago
मुंबई: अमिताभ बच्चन और धर्मेन्द्र को बिना मारधाड़ के घरेलू फिल्मों में देखना चाहते हैं तो हृषिकेश मुखर्जी  की फिल्में देखिए, गुड्डी, चुपके-चुपके, अभिमान, मिली या फिर राजेश खन्ना की बावर्ची या आनंद. एक से बढ़कर एक कॉमेडी फिल्में दीं हृषिकेश मुखर्जी  ने चाहे वो गोलमाल हो या फिर चुपके-चुपके.
 
हृषिकेश मुखर्जी  का इतना खौफ था कि जब वो सैट पर होते थे ना अमिताभ बच्चन की आवाज निकलती थी और ना धर्मेन्द्र की. दोनों ने इस बात को कौन बनेगा करोड़पति के सैट पर कुबूला भी तो शत्रुघ्न सिन्हा की बायोग्राफी में इस बात का खुलासा हुआ कि शत्रुघ्न सिन्हा अपने कैरियर में अगर किसी एक डायरेक्टर की फिल्म के सैट पर लेट नहीं आते थे तो वो थे हृषिकेश मुखर्जी. लेकिन सख्त जान हृषिकेश दा के दिल में दूसरों के लिए कितना प्यार भरा था, उसका उदाहरण अनुराधा का कहानी है.
 
 
यूं तो बॉलीवुड के ज्यादातर सितारे गरीब बच्चों के लिए कुछ ना कुछ चैरिटी करते रहते हैं, लेकिन जो हृषिकेश मुखर्जी ने अनुराधा के लिए किया, वैसा किसी के बस की बात नहीं. ज्यादातर सितारे गरीब बच्चों की पैसे से मदद करते हैं या फिर उनकी खुशी के लिए थोड़ा सा वक्त दे देते हैं. लेकिन हृषिकेश दा ने कुछ अनोखा किया. देश में पहला बोन मैरो ट्रांसप्लांट पश्चिम बंगाल की अनुराधा का हुआ था.
 
वो 16 साल की लड़की थी और कोलकाता में परिवार के साथ रहती थी. चूंकि हृषिकेश मुखर्जी भी बंगाली थे और कोलकाता से ही मुम्बई में आए थे. राजकपूर उन्हें प्यार से बाबूमोशाय कहा करते थे, बाद में उन्होंने आनंद फिल्म में राजेश खन्ना से अमिताभ के बंगाली किरदार भास्कर के लिए इसे कहलवाया. बंगाली होने के नाते ही अनुराधा के परिवार ने एक खत हृषिकेश मुखर्जी के नाम लिखा. 
 
 
दरअसल अनुराधा का बोन मैरो ट्रांसप्लांट मुंबई (बॉम्बे) में होना था. खत में अनुराधा के परिजनों ने लिखा कि “हम बॉम्बे से परिचित नहीं है, इसलिए रुकने के लिए जगह ढूंढना हमारे लिए मुश्किल काम है. क्या आप हमें इसमें मदद कर सकते हैं?” हृषिकेश मुखर्जी का उस परिवार से कोई परिचय नहीं था.
 
लेकिन अनुराधा का केस काफी क्रिटिकल था, और इससे पहले कभी देश में इस तरह का ऑपरेशन हुआ नहीं था. हृषिकेश दा ने अपनी पुत्रवधू स्वाति से पूछा, “क्या तुम्हें बुरा तो नहीं लगेगा अगर हम उन्हें अपना गैस्ट रूम दे दें? इससे हमारी प्राइवेसी पर असर तो पड़ेगा लेकिन मुझे लगता है कि हमें उनकी मदद करने की जरूरत है”.
 
हृषिकेश दा की इच्छा देखकर स्वाति मना नहीं कर पाईं और अनुराधा की फैमिली उनके घर आकर रुक गईं और पूरे 9 महीने तक वो इतने बड़े डायरेक्टर के घर रहीं. ये बात मीडिया में भी कभी नहीं आई और ना ही हृषिकेश दा ने इस बारे में कहीं कुछ बताया. ये राज तो उनकी बायोग्राफी से सामने आया. तो इस तरह के थे मुखर्जी, ऊपर से बेहद सख्त अंदर से काफी नरम और ऐसा वो बाहर वालों के लिए ही नहीं बल्कि इंडस्ट्री के स्टार्स के साथ भी थे. 
 
 
एक बार बंगाल के सुपरस्टार विश्वजीत जब उनसे मिलने उनके कार्टर रोड वाले बंगले में पहुंचे तो फिल्मों की रील की कई कैन्स देखीं. विश्वजीत ने पूछा, दादा क्या फिल्म बना रहे हो? तो दादा ने बताया, अरे नहीं, मनमोहन देसाई आया था, उसकी फिल्म तो शूट हो गई, लेकिन अब उसे शेप नहीं दे पा रहा, उसे थोड़ी जल्दी भी है, इसलिए मेरे पास छोड़ गया है.
 
दरअसल हृषिकेश मुखर्जी मूल रूप से वीडियो एडीटर थे. इसलिए देसाई अपनी फिल्म को एडिट करने के लिए उनके पास छोड़ गए थे और फिल्म का नाम था- कुली. जबकि देसाई से बड़े डायरेक्टर थे. ऐसे ही होता था, जब भी बॉलीवुड में कोई मुश्किल में फंसता था उसे हृषिकेश मुखर्जी सबसे पहले याद आते थे.
 
 
1975 के वक्त भी जब कोई इमरजेंसी का विरोध खुल कर नहीं कर पा रहा था, यहां तक कि अपने घर मीटिंग तक करने से परहेज कर रहा था,ऋषिकेश मुखर्जी ने अपने घर पर ये मीटिंग रखी. वो हृषिकेश दा जिन्होंने परवीन बॉबी की हॉट इमेज तोड़कर उसे एक आम घरवाली का रोल दिया, असरानी को कॉमेडी रोल्स की जगह करेक्टर आर्टिस्ट बनाया, बिंदु और ललिता पवार को भी वैम्प के रोल्स की जगह करेक्टर रोल्स दिए.
 
धर्मेन्द्र जैसी हीमैन से कॉमेडी भी हृषिकेश दा ने ही करवाई. उनके बारे में माना जाता था कि वो फालतू सीन शूट नहीं करते थे, उनके दिमाग में पहले से तय होता था कि क्या चाहिए और वैसा ही शूट करते थे, सो एडीटिंग की या एक्स्ट्रा शॉट्स की काफी कम जरूरत पड़ती थी. बहुत कम लोगों को ये पता है कि सुभाष घई से पहले वो भी अपनी फिल्मों में अक्सर कैमियो किया करते थे.

Tags

Advertisement