नई दिल्ली: बद्री की दुल्हनियां, इंगलिश मीडियम, टॉयलेट और अब बरेली की बर्फी… इस साल आई ये चौथी फिल्म है जो कमोवेश एक जैसे माहौल में रची फिल्में हैं और हिंदी मीडियम थोड़ी कमजोर रह गई, लेकिन बाकी सभी फिल्में लोगों को पसंद आईं..
जी हां बरेली की बर्फी भी आपको पसंद आएगी. एक बार देखने के लिए बुरी नहीं है फिल्म, आप हंसते हंसते देखेंगे और आशिक होंगे तो शायद रोएं भी. छोटे शहरों पर बन रहीं फिल्में उनकी कल्चर खासकर देसी डायलॉगबाजी की वजह से पसंद की जा रही हैं और बरेली की बर्फी भी उनमें शामिल हो गई है.
फिल्म की कहानी है बरेली की, जिसका हीरो चिराग दुबे (आयुष्मान खुराना) प्रिंटिंग प्रेस चलाता है, दूसरा हीरो प्रीतम विद्रोही (राजकुमार राव) इंगलिश मीडियम के इरफान की तरह शोरूम पर साड़ी बेचता है, हालांकि यहां वो सेल्स मैन है. हीरोइन बिट्टी मिश्रा (कीर्ति सनन) बिजली विभाग के कॉल सेंटर में काम करती है, हीरो का दोस्त रोहित चौधरी रेलवे स्टेशन पर बुक स्टॉल चलाता है, हीरोइन के बाप (पंकज त्रिपाठी) की मिठाई की दुकान है, मां (सीमा पाहवा) स्कूल में टीचर है.
यानी सारे के सारे देसी जॉब और सबकी देसी बोली. बिट्टी की मां बेटी की बिंदास लड़कों जैसी हरकतों से परेशान है, तो अनुपम खेर टाइप बाप को बेटी से सिगरेट शेयर करने में परहेज नहीं. बिंदास लड़की को कोई लड़का पसंद नहीं करता तो मां परेशान है.
इधर बिट्टी को एक किताब मिलती है बरेली की बर्फी, जो उसके जैसी लड़की की कहानी है. जिसे लिखा था चिराग ने अपनी धोखेबाज प्रेमिका बबली की तारीफ में, लेकिन बदनामी के डर से उसे प्रीतम के नाम से छपवा दिया था.
बिट्टी प्रीतम को ढूंढती है, साजन फिल्म की ही तरह असली राइटर चिराग के साथ. चिराग सोचता है प्रीतम (राजकुमार राव) को बुरे करेक्टर की तरह पेश करके चिराग बनके उसका दिल जीतने का आइडिया लगाता है, लेकिन बिट्टी को वही प्रीतम (राजकुमार) पसंद आ जाता है. ऐसे में चिराग दोनों के रास्ते से साजन की तरह ही हट जाता है. इतनी मेहनत के बावजूद अगर आपको क्लाइमेक्स पहले से समझ आ गया तो आपका मजा थोड़ा कम हो सकता है.
ऐसे में फिल्म को क्यों देखने जाएं, वो है जिस शानदार तरीके से बरेली जैसे छोटे शहरों का कल्चर इस फिल्म में मारक डायलॉग बाजी के साथ पेश किया गया है, उसके लिए डायलॉग लिखने वाले नीतेश तिवारी (दंगल के डायरेक्टर) को क्रेडिट जाता है, करना भी था क्योंकि फिल्म उनकी बीवी अश्वनी अय्यर तिवारी ने जो डायरेक्ट की है. डायलॉग पढिए और उनमें देसीपन के बिंदास, बेलौस अंदाज की खुश्बू महसूस करिए—
मम्मी..जो तुमने ब्लाउज में दो हजार रुपए छुपाकर रखे थे….
ऐसा लात मारेंगे कि कूल्हे पर डिम्पल निकल आएंगे तुमाए..
वाह..संडास से लेकर सुशीला तक सब कुछ दिखाई दे रहा है
तुम काहे लिलियाए रही हो
ये तो आस्तीन का एनाकोंडा निकला
अगर शकल देखकर लडकियां शादी करती ना तो आधे लड़के कंवारे होते
ऐसे तमाम डायलॉग्स हैं, जो देसी हैं, जिनमें मुहावरों का इस्तेमाल किया गया है. तमाम आम बोलचाल के दिलचस्प शब्द हैं जैसे अरे अभी तो बवासीर ठीक होके चुका है इनके, अरे गाल पर मसा होता तो घोड़े के बाल से काटके निकाल देते, क्या आफ वर्जिन हैं. इनको बोलने की टाइमिंग भी गजब की है. दिक्कत तभी है जब आप क्लाइमेक्स गैस कर लेते हैं, जिसका बड़ा मौका डायरेक्टर की गलती से ऑडियंस को मिलता भी है.
म्यूजिक फिल्म का औसत से बेहतर है, एक दो गाने लोगों की जुबान पर हैं. डायलॉग्स के बाद अगर दूसरी चीज बेहतर है तो वो है एक्टिंग. राजकुमार राव ने एंट्री लेते ही फिल्म में मजा डाल दिया है, दो अलग अलग तरह के करेक्टर्स को राजकुमार ने बखूबी जिया है, बिना मेकअप के बिंदास गर्ल के रोल में कीर्ती ने बेहतर एक्टिंग की है, आयुष्मान भी. पंकज त्रिपाठी और सीमा पाहवा जैसे करेक्टर्स फिल्म को बांधे रहे हैं तो आयुष्मान के दोस्त के तौर पर नए चेहरे रोहित चौधरी के खाल़िस बरेलवी अंदाज को आप नजरअंदाज़ नहीं कर पाएंगे.
फिल्म के सूत्रधार जावेद अख्तर है. ये फिल्म आपको ऋषिकेश मुखर्जी टाइप की हलकी फुलकी कॉमेडी फिल्मों की याद दिलाएगी, बरेली के झुमके की तरह खनकदार तो नहीं लेकिन बर्फी की मिठास भी आपको भाएगी. ऐसे में चूंकि फिल्म कम बजट की है, सो आसानी से कमाई कर लेगी, और एक बार देखने के लिए बुरी नहीं बशर्ते आप क्लाइमेक्स ना गैस कर लें.