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Movie Review: क्लास ऑडियंस के लिए बनी है मूवी ‘राग देश’

अगर एक लाइन में रागदेश के बारे में कहा जाए, तो ये खाली एंटरटेनमेंट के लिए मूवी हॉल में जाने वालों के लिए कतई नहीं हैं, देशभक्ति यूं तो मास से जुड़ा सब्जेक्ट है, लेकिन ये फिल्म क्लास के लिए बनी है.

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  • July 28, 2017 10:33 am Asia/KolkataIST, Updated 7 years ago
नई दिल्ली: अगर एक लाइन में रागदेश के बारे में कहा जाए, तो ये खाली एंटरटेनमेंट के लिए मूवी हॉल में जाने वालों के लिए कतई नहीं हैं, देशभक्ति यूं तो मास से जुड़ा सब्जेक्ट है, लेकिन ये फिल्म क्लास के लिए बनी है. 
 
बोस और आजाद हिंद फौज के नाते इस मूवी को मास से जोड़ने की कोशिश तो की गई, लेकिन बजट, म्यूजिक, बड़े स्टार्स, स्टोरी की पेचीदगी आदि कमियों के चलते कामयाब नहीं रहे. हालांकि फेसबुक पर ज्ञान बखारने वाली जनरेशन के लिए ये मूवी देखना बनता है.
 
कहानी है आजाद हिंद फौज के हारने, बोस के गायब होने के बाद आईएनए के अधिकारियों के ऊपर चले मुकदमे की, चूंकि वो लाल किले में चलाया गया, चूंकि पहला केस जिन तीन अधिकारियों पर चला उनमें से एक हिंदू प्रेम सहगल (मोहित मारवाह). एक मुस्लिम शाहनवाज खान (कुणाल कपूर) और एक सिख गुरुबख्श सिंह ढिल्लन (अमित साध) थे, चूंकि मीडिया में उसकी खबरों के चलते पब्लिक ने उन्हें सपोर्ट किया और उसी की वजह से कोर्ट में दोषी करार होने के बावजूद ब्रिटिश आर्मी चीफ ने उन्हें छोड़ दिया, इसलिए ये घटना चर्चा में रही.
 
इस मूवी के जरिए आप बड़ी आसानी से उन कई अनछुए पहलुओं को जान सकते हैं, जो आजाद हिंद फौज से जुड़े थे. खास बात ये थी इसके जरिए आप जानेंगे कि जिस आजाद हिंद फौज को आप बोस की फौज के तौर पर जानते हैं, उसे जापानियों की मदद से मोहन सिंह ने खड़ा किया था, लेकिन तिग्मांशु धूलिया ने रासबिहारी बोस को क्यों नजरअंदाज किया, ये हैरत की बात है.
 
मोहन सिंह को तो बहुत जल्द हटा दिया गया था, ऐसे में रास बिहारी बोस ने आजाद हिंद फौज समेत इंडियंस इंडिपेंडेंस लीग की जिम्मेदारी पूरी तरह संभाली और उन्हीं ने सुभाष चंद्र बोस को आजाद हिंद फौज संभालने के लिए आमंत्रित किया था, रास बिहारी उन दिनों बीमार थे, बूढ़े हो चुके थे.
 
इस मूवी के जरिए आप उस विडम्बना को समझ सकेंगे जो उन फौजियों ने झेली, जो पहले ब्रिटिश सरकार के फौजी थे, बाद में आजाद हिंद फौज के लिए अपने ही साथियों से लड़ने लगे, पहला ही सीन आपको सोचने पर मजबूर कर देता है, जब सैनिक कहता है हिंदुस्तानी तो आवाज आती है, कौन सा हिंदुस्तानी?  आप सही से 26 क्रांतिकारियों के नाम नहीं जानते होंगे, लेकिन आईएनए के 26000 सैनिक शहीद हुए, उनको तो आप गिनते ही नहीं होंगे, ये फिल्म याद दिलाएगी. कुछ इमोशनल सीन आपकी आंखों में आंसू भी ला सकते हैं, जब एक गरीब महिला नेताजी बोस से कहती है क्या अमीरों के पैसों से ही आजादी आएगी?
 
हालांकि बदलते परिवेश में इन तीनों करेक्टर्स का बाद का इतिहास जानना आज के यूथ के लिए ज्यादा जरूरी होगा. प्रेम सहगल ने लक्ष्मी स्वामीनाथन से शादी कर ली थी, और उनकी एक बेटी हुई सुहासिनी, पूरा परिवार कम्युनिस्ट राजनीति से जुड़ गया था. सुहासिनी फिल्ममेकर मुजफ्फर अली से शादी करके सुहासिनी अली हो गईं, उनके बेटे शाद अली की फिल्म बंटी और बबली आपने जरूर देखी होगी.
 
तो शाहनवाज खान बाद में कांग्रेसी हो गए, चार बार मेरठ से सांसद रहे कई बार मंत्री रहे. नेहरूजी ने उन्हें बोस के प्लेन एक्सीडेंट की जांच करने वाले कमीशन का प्रेसीडेंट बनाया और आज तक बोस के भक्त शाहनवाज आयोग पर गुस्सा हैं, क्योकि आयोग ने लिख दिया था कि बोस उस एक्सीडेंट में मारे गए. बाद में जब ये खुलासा हुआ कि शाहनवाज का एक बेटा पाकिस्तानी सेना में अफसर है, तो लोग खफा हो गए, वो 1967 मे चुनाव हारे और फिर 1977 में भी. इधर ढिल्लन एमपी के शिवपुरी में शिफ्ट हो गए, 1998 में अटल सरकार ने उन्हें पदमभूषण दिया. शायद अब आप फिल्म से अपने आपको थोड़ा जोड़ पाएं.
 
फिल्म में गांधी जी का दो बार जिक्र है, जिसमें पहला सीन इमोशनल है, बोस के घर में उनका खत आता है कि सुभाष का श्राद्ध ना करें. जबकि दूसरा हास्यास्पद लगता है जब वो लालकिले में आईएनए कैदियों से मिलते हैं और हिंदू मुस्लिम को अलग अलग चाय को लेकर कहते हैं कि सब मिलाकर चाय पीयो और उससे पहले अपने अहिंसावादी होने पर उनसे मतभेद भी दर्शाते हैं.
 
एक्टिंग के लिहाज से देखें तो कंवलजीत, जाकिर हुसैन, केनी देसाई जैसे करेक्टर आर्टिस्ट जमे हैं, हालांकि बाद में लगा कि भूलाभाई देसाई का किरदार और भी किसी मशहूर एक्टर से करवाने की जरूरत थी. कुणाल कपूर, मोहित मारवाह और अमित साध ने अपने अपने रोल्स पर पूरी मेहनत की, दिखी भी है.
 
इंटेलीजेंट किस्म की क्लास फिल्म बने और उसमें उसमें हिंदी सबटाइटल्स में तमाम गलतियां हों तो काफी अखरती है, बड़े परदे पर स्क्रीन पर तहत की जगह ‘तहद’, ठहराया की जगह ‘ठराया’ जैसी तमाम गलतियां हैं, जबकि तिग्मांशु हिंदी बैल्ट के हैं. नेहरू का करेक्टर भी असरदार नहीं है, इस ट्रायल को लेकर देश की जनता में जो गुस्सा था, उसे भी परदे पर ढंग से उकेर नहीं पाए तिग्मांशु. कहीं कहीं फिल्म ड़ॉक्यूमेंट्री लगने लगती है.
 
बावजूद इसके उस दौर को परदे पर जीना इस कम बजट की फिल्म के लिए आसान नहीं था. इसलिए एक अछूते विषय पर फिल्म बनाने की हिम्मत तो तिग्मांशु ने की है, अब स्कॉलर, इतिहास प्रेमी, पत्रकार और फेसबुक के विद्वान ही इसको डूबने से थोड़ा बचा सकते हैं. हां फिल्म को प्रोडयूस राज्यसभा टीवी के गुरुदीप सिंह सप्पल ने किया है, राज्यसभा टीवी की एंकर और दिग्विजय सिंह की बीवी अमृता राय भी एक छोटे से रोल में दिखी हैं. फिल्म में एक ही गाना है, जो कहीं कहीं इमोशनल करता है. आप उसे प्रोडक्शन वैल्यू पर तीन स्टार और एंटरटेनमेंट वैल्यू पर दो स्टार से आंक सकते हैं.

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