नई दिल्ली : मूवी रानी लक्ष्मीबाई से शुरू होती है और रानी पदमिनी पर खत्म होती है. मर्दों की दुनियां की सताई इन औरतों की मूवी में डायरेक्टर ने शुरूआत भी एक प्रतीक किस्म के सीन से की है और एंड भी उसी से की है, कोई रेप करने आए तो कम या ज्यादा उम्र की फीमेल उसे कपड़े उतार कर शर्मशार कर दे.
लेकिन ऐसे ही ऐतिहासिक प्रतीकों और परदे पर सिनेमाई प्रतीकों के बीच बेगम जान की कहानी का तालमेल कुछ बिगड़ता दिखाई देता है. खासी एंटरटेनमेंट या फैमिली मूवी गोअर्स के लिए ये मूवी नहीं है, लेकिन समथिंग डिफरेंट में यकीन करने वालों को इसे छोड़ना भी नहीं चाहिए.
बांग्ला फिल्ममेकर श्रीजीत मुखर्जी की ये पहली बॉलीवुड मूवी है, जो उन्हीं की ही बांग्ला फिल्म ‘राजकहिनी’ का हिंदी रीमेक है. बस मूवी की लोकेशन बदल दी गई है, राजकहिनी में बंगाल का बॉर्डर था, बेगम जान में पंजाब का बॉर्डर है. चूक यहां हुई कि मूवी में कुछ किरदार पंजाबी तो बोलते हैं, लेकिन कोई भी बड़े किरदार में पंजाबी नहीं है, यहां तक कि बॉर्डर कमीशन के लोग भी नहीं. कहानी है बेगम जान (विद्या बालान) की, जिसने शहर से बाहर एक कोठा बना रखा है.
बॉर्डर को निधारित करने वाला रेडक्लिफ आयोग जो बंटवारे की लकीर खींचता है, वो कोठे के बीचोंबीच से जाती है, यानी आधा कोठा पाकिस्तान में, आधा हिंदोस्तान में. जो कि मुमकिन नहीं था, क्योंकि विभाजन जिलों, तहसीलों या गावों जैसी इकाइयों के आधार पर किया गया था, ना कि एक एक मकान के आधार पर. फिर भी क्योंकि ये आइडिया नया था, इसलिए लोगों को जानने की उत्सुकता थी कि आगे क्या होगा?
इस मूल कहानी के साथ साथ मूवी में कई और कहानियां साथ साथ चलती हैं, एक समाजसेवक मास्टर है विवेक मुश्रान, जो कोठे पर आकर सबकी मदद करता रहता है. उसको कोठे की एक लड़की लव करती है, लेकिन वो बेगम जान को चाहता है.
बेगम के कर्ज में डूबे कोठे के नौकर सुजीत की कहानी है जो एक कोठेवाली गौहर खान को लव करता है, बाद में उसे बचाने के लिए मर जाता है. एक बच्ची की कहानी है, जो कोठे पर ही पैदा हुई, जिसे कोठे की इकलौती बूढ़ी ईला अरुण भारतीय वीरांगनाओं की कहानियां सुनाती रहती है. कोठे पर कोई लड़की पंजाबी है, तो कोई गुजराती, कोई ब्राह्मण है तो कोई अनुसूचित जाति की. इन्हीं कहानियों में मूल कहानी कभी कभी भटकती है. बाद मे ये सब अपने कोठे को बचाने के लिए एक हो जाते हैं.
फिल्म में इतनी जबरदस्त डायलॉग बाजी और इतने हाईपिच पर बनाई गई है कि आपको लगता है कि अब कुछ होगा, अब कुछ होगा. लेकिन जहां पिच डाउन होता है, वहीं आप लॉजिक लगाने लगते हैं, तभी मूवी आपको हलकी लगने लगती है. बंगाल में मूवी रिलीज करने के लिए श्रीजीत ने मुस्लिम किरदारों को निष्पक्ष दिखाया, इस मूवी में पंजाबियों को उनसे रिप्लेस किया जा सकता था.
ऐसे में सलीम जो मुस्लिम दंगाइयों को ही मारने के आरोप में पुलिस की नौकरी खो देता है, अपना परिवार छोड़कर बेगम जान के कोठे पर निस्वार्थ सेवा क्यों देता है, क्यों अपनी जान दे देता है कोठेवालियों के लिए समझ से बाहर है तो वहीं हिंदू नौकर की मजबूरी कर्ज बता दिया गया और जान देने के पीछे उसकी मोहब्बत.
ऐसे ही बॉर्डर कमीशन में एक कांग्रेस का हिंदू सदस्य है और एक मुस्लिम लीग का. हिंदू सदस्य मुसलमानों से ना सिर्फ एक डायलॉग में घृणा करता दिखता है, बल्कि कोठा खाली करवाने के लिए एक गुंडे की भी सेवाएं लेने से नहीं हिचकता, जबकि मुस्लिम सदस्य बेगम जान का हाल देखकर मूवी में सुसाइड करता दिखाया गया है. हकीकत में कांग्रेस की तरफ से दो लोग बॉर्डर कमीशन में थे और दोनों ही जज थे, ऐसी ओछी हरकतें मुमकिन नहीं थी.
ऐसे ही दो लोगों का जबरदस्त हृदय परिवर्तन एकदम से हजम नहीं हुआ, एक तो बेगम जान के मना करने पर विवेक मुश्रान का हीरो से विलेन बन जाना और दूसरा थानेदार का एक कमउम्र लड़की के कपड़े उतारते ही पागलों की तरह व्यवहार करना. विद्या का बेगम जान का किरदार एक ऐसी अच्छी मगर जिद्दी औरत का किरदार है, जो पूरे कोठे को अपनी जिद पर स्वाहा कर देती है, ऐसे में आप लॉजिक लगा सकते हैं कि इसकी शायद जरुरत नहीं थी. जरूरत शायद आपको दो जज लेवल के व्यक्तियों को सरकारी काम में गुंडों की मदद लेनी भी ना लगे.
तो लॉजिक मत लगाइए, मर्दों की दुनियां के खिलाफ डॉयलॉग काफी जबरदस्त है, जो करैक्टर्स के लिहाज से जायज भी लगते हैं. कुछ तो काफी बोल्ड भी हैं— ‘’महीना गिनना तो हमें भी आता है, साला जब आता है, लाल करके जाता है’’ या फिर आजादी बस मर्दों के लिए होती है, औरत तो हमेशा से ही गुलाम रही है’’. एक ऐसा ही बोल्ड डायलॉग्स गौहर खान और उसके प्रेमी के बीच फिल्माया गया है. तो एक के बाद एक बोल्ड डायलॉग्स और हाईपिच ड्रामा में आप उलझे रहते हैं कि कुछ बड़ा होगा, कुछ बड़ा होगा और मूवी खत्म हो जाती है.
अनु मलिक अच्छे म्यूजिक और कम से कम दो बेहतरीन गानों के साथ वापस आए हैं दो साल बाद. एक्टिंग के मामले में विद्या ने अपना बेस्ट दिया, गौहर, पल्लवी शारदा, ग्रेसी गोस्वामी, ईला अरुण, पितोबष त्रिपाठी, सुमित निझावन और चंकी पांडे को भी सही से मौका मिला. नसीरुद्दीन शाह और आशीष विध्यार्थी को ज्यादा खास मौका नहीं मिला. मूवी चूंकि एक कोठे के इर्द गिर्द ही 90 फीसदी फिल्माई गई है, इसलिए कम बजट मूवी है, आराम से पैसा निकाल लेगी. महिलाओं को तो देखनी ही चाहिए.