आखिरी फिल्म जो हर लाइन पर आपको गुदगुदा रही थी, वो थी दंगल जो पिछले साल आई थी. इस साल आई ऐसी पहली मूवी है बद्रीनाथ की दुल्हनियां. दंगल जैसी मेगा मूवी तो नहीं लेकिन आपका वक्त और आपका पैसा बेकार नहीं जाएगा.
मुंबई: आखिरी फिल्म जो हर लाइन पर आपको गुदगुदा रही थी, वो थी दंगल जो पिछले साल आई थी. इस साल आई ऐसी पहली मूवी है बद्रीनाथ की दुल्हनियां. दंगल जैसी मेगा मूवी तो नहीं लेकिन आपका वक्त और आपका पैसा बेकार नहीं जाएगा.
आप ये शादी अटैंड कर सकते हैं. फिल्म रिलीज से पहले वरुण धवन ने ट्विटर पर एक अनोखी अपील की, कि मेरे डायरेक्टर शशांक खेतान ने इस मूवी पर काफी मेहनत की है, एक बार देखें जरूर. तो ये मेहनत वाकई में दिखी है और हर सीन में.
कहानी का प्लॉट कोई पेचीदा या अनोखा नहीं है, लेकिन ये दो लाइन का प्लॉट छोटे शहरों में युवाओं की सोच में आ रहे बदलाव को दिखाता है, खासकर छोटे छोटे शोरूम या बड़ी दुकान चला रहे परिवार के युवाओं में. पिता चाहते हैं कि बेटा पढ़ाई छोड़कर जल्दी से घर का बिजनेस संभाल ले और कोई ऐसी बहू ले आए, जो सबका ख्याल रखे, सबकी जरूरतों का ख्याल रखे, खानदान की परम्पराओं और इज्जत का ख्याल करे, बस अपनी ख्वाहिशों का ख्याल छोड़कर और बेटी हो तो भी कैरियर की चिंता छोड़कर बस शादी कर ले और इसके लिए दोनों के बाप कैसे ब्लेकमेल करते हैं, ये बड़े फनी तरीके से इस मूवी में दिखाया है.
कहानी है झांसी के दसवीं पास बद्रीनाथ बंसल यानी वरुण धवन की, जो अपने पिता के साहूकारी धंधे में वसूली भाई का काम करता है और उसे कोटा की एक शादी में चुलबुली लड़की वैदेही त्रिवेदी यानी आलिया भट्ट पसंद आ जाती है, जो अपने कैरियर को लेकर काफी सीरियस है. उसको पटाने की कोशिश में जहां आप छोटे शहरों के लड़कों के मिजाज से वाकिफ हो सकेंगे, वहीं आपको वरुण में कई बार गोविंदा दिखेगा. उसको पटाने के लिए उसकी बहन की शादी में मदद कर वो हीरो तो बन जाता है, लेकिन कैरियर का सपना पूरा करने के लिए वो बद्री को झटका देकर उड़ जाती है. इंटरवल तक मूवी में काफी मस्ती है, फन है, इंटरवल के बाद मूवी टर्न लेती है. कहानी झांसी से सिंगापुर पहुंच जाती है, जहां आलिया एयरहोस्टेस बन जाती है. बाकी कहानी सिंगापुर से वापस झांसी के किले में क्लाइमेक्स तक है, जो कभी कभी बोझिल लगता है, लेकिन धीरे से मूवी फिर से उसी मस्त मूड में वापस आती है और झांसी की रानी के जरिए लड़की बचाओ का मैसेज देते हुए हैप्पी एंडिंग के साथ खत्म हो जाती है.
दंगल की तरह से ही इस मूवी की कहानी में कोई खास सस्पेंस नहीं था, बस कहानी को फिल्माना कैसे है, हंसते हंसते बढ़ाना कैसे है और ऑडियंस को उससे जोड़े कैसे रखना है, दंगल की तरह इस मूवी में भी डाय़रेक्टर को कामयाबी मिली है. एक एक सीन में डायलॉग्स और छोटे शहरों के डिलीवरी अंदाज से लेकर सिनेमेटोग्राफी तक का खासा ध्यान रखा गया है, फन और इमोशंस का भी. मूवी में दो डांसिंग सोंग्स और एक सैड सोंग आपको पसंद आएंगे. करैक्टराइजेशन और बेहतर हो सकता था. गौहर खान, आकांक्षा सिंह का बेहतर इस्तेमाल नहीं हुआ, श्वेता बसु प्रसाद का रोल फिर भी बेहतर था, बद्री के दोस्त के तौर पर साहिल वैद ने अच्छी एक्टिंग की है, वरुण और आलिया उम्मीदों पर खरे उतरे हैं, बुंदेलखंडी लहजे को उन्होंने ढंग से संभाला है. दंगल में अपारशक्ति का रोल अच्छा था, इसमें उन्हें ज्यादा मौका नहीं मिला. स्वानंद किरकिरे और रितुराज सिंह के रोल में भी थोड़े और फन की जरूरत थी.
कुल मिलाकर बद्रीनाथ की दुल्हनियां मूवी पैसा वसूल है, अभी कोई और टक्कर की मूवी नहीं है तो आप देख सकते हैं. सबसे बड़ी बात ये है कि आप मूवी से रईस या रंगून जैसी कोई बड़ी उम्मीद लेकर हॉल मे नहीं जाएंगे और ना ही कोई सुपरस्टार है इसमें तो ऐसे में आपको मजा आएगा, एक एक लाइन पर आप मुस्कराएंगे, अगर छोटे शहर से ताल्लुक रखते हैं तो कुछ यादें भी ताजा हो जाएंगी. इस मूवी में हालांकि दहेज, बेटे पैदा होने की पूजा, औरतों को जॉब करने की मनाही जैसी तमाम छोटे शहर की मध्यवर्गीय मानसकिता दिखाई गई लेकिन जिस तरह से बंसल (बनियां) के परिवार में शुक्ला और त्रिवेदी (ब्राह्मण) परिवारों की अरैंज मैरिज आसानी से होती दिखाई गई, उससे लगता है डायरेक्टर खेतान को यूपी के कास्ट और सबकास्ट सिस्टम की जानकारी नहीं.
आखिरी फिल्म जो हर लाइन पर आपको गुदगुदा रही थी, वो थी दंगल जो पिछले साल आई थी. इस साल आई ऐसी पहली मूवी है बद्रीनाथ की दुल्हनियां. दंगल जैसी मेगा मूवी तो नहीं लेकिन आपका वक्त और आपका पैसा बेकार नहीं जाएगा. आप ये शादी अटैंड कर सकते हैं. फिल्म रिलीज से पहले वरुण धवन ने ट्विटर पर एक अनोखी अपील की, कि मेरे डायरेक्टर शशांक खेतान ने इस मूवी पर काफी मेहनत की है, एक बार देखें जरूर. तो ये मेहनत वाकई में दिखी है और हर सीन में.
कहानी का प्लॉट कोई पेचीदा या अनोखा नहीं है, लेकिन ये दो लाइन का प्लॉट छोटे शहरों में युवाओं की सोच में आ रहे बदलाव को दिखाता है, खासकर छोटे छोटे शोरूम या बड़ी दुकान चला रहे परिवार के युवाओं में. पिता चाहते हैं कि बेटा पढ़ाई छोड़कर जल्दी से घर का बिजनेस संभाल ले और कोई ऐसी बहू ले आए, जो सबका ख्याल रखे, सबकी जरूरतों का ख्याल रखे, खानदान की परम्पराओं और इज्जत का ख्याल करे, बस अपनी ख्वाहिशों का ख्याल छोड़कर और बेटी हो तो भी कैरियर की चिंता छोड़कर बस शादी कर ले और इसके लिए दोनों के बाप कैसे ब्लेकमेल करते हैं, ये बड़े फनी तरीके से इस मूवी में दिखाया है.
कहानी है झांसी के दसवीं पास बद्रीनाथ बंसल यानी वरुण धवन की, जो अपने पिता के साहूकारी धंधे में वसूली भाई का काम करता है और उसे कोटा की एक शादी में चुलबुली लड़की वैदेही त्रिवेदी यानी आलिया भट्ट पसंद आ जाती है, जो अपने कैरियर को लेकर काफी सीरियस है. उसको पटाने की कोशिश में जहां आप छोटे शहरों के लड़कों के मिजाज से वाकिफ हो सकेंगे, वहीं आपको वरुण में कई बार गोविंदा दिखेगा. उसको पटाने के लिए उसकी बहन की शादी में मदद कर वो हीरो तो बन जाता है, लेकिन कैरियर का सपना पूरा करने के लिए वो बद्री को झटका देकर उड़ जाती है. इंटरवल तक मूवी में काफी मस्ती है, फन है, इंटरवल के बाद मूवी टर्न लेती है. कहानी झांसी से सिंगापुर पहुंच जाती है, जहां आलिया एयरहोस्टेस बन जाती है. बाकी कहानी सिंगापुर से वापस झांसी के किले में क्लाइमेक्स तक है, जो कभी कभी बोझिल लगता है, लेकिन धीरे से मूवी फिर से उसी मस्त मूड में वापस आती है और झांसी की रानी के जरिए लड़की बचाओ का मैसेज देते हुए हैप्पी एंडिंग के साथ खत्म हो जाती है.
दंगल की तरह से ही इस मूवी की कहानी में कोई खास सस्पेंस नहीं था, बस कहानी को फिल्माना कैसे है, हंसते हंसते बढ़ाना कैसे है और ऑडियंस को उससे जोड़े कैसे रखना है, दंगल की तरह इस मूवी में भी डाय़रेक्टर को कामयाबी मिली है. एक एक सीन में डायलॉग्स और छोटे शहरों के डिलीवरी अंदाज से लेकर सिनेमेटोग्राफी तक का खासा ध्यान रखा गया है, फन और इमोशंस का भी. मूवी में दो डांसिंग सोंग्स और एक सैड सोंग आपको पसंद आएंगे. करैक्टराइजेशन और बेहतर हो सकता था. गौहर खान, आकांक्षा सिंह का बेहतर इस्तेमाल नहीं हुआ, श्वेता बसु प्रसाद का रोल फिर भी बेहतर था, बद्री के दोस्त के तौर पर साहिल वैद ने अच्छी एक्टिंग की है, वरुण और आलिया उम्मीदों पर खरे उतरे हैं, बुंदेलखंडी लहजे को उन्होंने ढंग से संभाला है. दंगल में अपारशक्ति का रोल अच्छा था, इसमें उन्हें ज्यादा मौका नहीं मिला. स्वानंद किरकिरे और रितुराज सिंह के रोल में भी थोड़े और फन की जरूरत थी.
कुल मिलाकर बद्रीनाथ की दुल्हनियां मूवी पैसा वसूल है, अभी कोई और टक्कर की मूवी नहीं है तो आप देख सकते हैं. सबसे बड़ी बात ये है कि आप मूवी से रईस या रंगून जैसी कोई बड़ी उम्मीद लेकर हॉल मे नहीं जाएंगे और ना ही कोई सुपरस्टार है इसमें तो ऐसे में आपको मजा आएगा, एक एक लाइन पर आप मुस्कराएंगे, अगर छोटे शहर से ताल्लुक रखते हैं तो कुछ यादें भी ताजा हो जाएंगी. इस मूवी में हालांकि दहेज, बेटे पैदा होने की पूजा, औरतों को जॉब करने की मनाही जैसी तमाम छोटे शहर की मध्यवर्गीय मानसकिता दिखाई गई लेकिन जिस तरह से बंसल (बनियां) के परिवार में शुक्ला और त्रिवेदी (ब्राह्मण) परिवारों की अरैंज मैरिज आसानी से होती दिखाई गई, उससे लगता है डायरेक्टर खेतान को यूपी के कास्ट और सबकास्ट सिस्टम की जानकारी नहीं.