लिट्टी चोखा का इतिहास 9400 साल पुराना, जानें कैसे पहुंचा सबके घर की रसोई में…

नई दिल्ली : लिट्टी चोखा उत्तर प्रदेश और बिहार का मशहूर व्यंजनों में से एक है। आपने इसका नाम तो कई बार सुना होगा और शायद खाया भी होगा। क्या आप जानते हैं कि लिट्टी और चोखा पहली बार कब और किन परिस्थितियों में बनाया गया था? इस बारे में लोग अलग-अलग जानकारी देते हैं। […]

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लिट्टी चोखा का इतिहास 9400 साल पुराना, जानें कैसे पहुंचा सबके घर की रसोई में…

Manisha Shukla

  • November 14, 2024 9:47 pm Asia/KolkataIST, Updated 6 hours ago

नई दिल्ली : लिट्टी चोखा उत्तर प्रदेश और बिहार का मशहूर व्यंजनों में से एक है। आपने इसका नाम तो कई बार सुना होगा और शायद खाया भी होगा। क्या आप जानते हैं कि लिट्टी और चोखा पहली बार कब और किन परिस्थितियों में बनाया गया था? इस बारे में लोग अलग-अलग जानकारी देते हैं। अगर आप नहीं जानते तो हम आपको यहां बताने जा रहे हैं।

लिट्टी चोखा का इतिहास करीब 9400 साल पुराना है। यह व्यंजन पहली बार तब बना था, जब दुनिया के पहले ज्योतिषाचार्य भृगु ऋषि ने अपने शिष्य दर्दर मुनि की मदद से बलिया में सरयू की जलधारा को गंगा से जोड़ा था। उस समय से पहले सरयू की जलधारा अयोध्या तक ही बहती थी। यही वह समय था, जब दुनिया में पहली बार नदियों को नदियों से जोड़ने की न सिर्फ योजना बनी, बल्कि उस पर अमल भी हुआ। इस उपलब्धि को हासिल करने के बाद ऋषियों ने सरयू और गंगा के संगम पर एक छोटा सा आयोजन किया। इस आयोजन में लिट्टी बनाई गई।

हाथों से लिट्टी चोखा तैयार किया था

सामुदायिक भोज के लिए ऋषियों ने अपने हाथों से लिट्टी चोखा तैयार किया था। पद्म पुराण के भृगु क्षेत्र महात्म्य खंड में इस प्रसंग का विस्तार से वर्णन किया गया है। मत्स्य पुराण में भी इस प्रसंग को स्थान मिला है। हालांकि, यहां बहुत कम लिखा गया है। उस समय जो लिट्टी बनाई जाती थी, उसमें मसाला नहीं भरा जाता था। समय के साथ इस व्यंजन ने खूब प्रसिद्धि पाई। इसके बाद यह सभी आश्रमों में बनने वाला दिव्य व्यंजन बन गया।

क्या है पौराणिक मान्यता

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, इस व्यंजन को वर्तमान स्वरूप देने का श्रेय राजर्षि विश्वामित्र को जाता है। वे गंगा पार एक आश्रम में रहते थे, जिसे आज बक्सर के नाम से जाना जाता है। चूंकि वे राजघराने से थे और अलग-अलग स्वाद के व्यंजन खाने के शौकीन थे, इसलिए उन्होंने लिट्टी में बेसन का मसाला भरकर प्रयोग किया। तब से यह दिव्य व्यंजन ऋषियों के आश्रमों से निकलकर किसानों और आम परिवारों तक पहुंच गया। दरअसल, अब यह व्यंजन कई अन्य रूपों और आकारों में बंगलों और हवेलियों तक पहुंच गया है।

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