नई दिल्ली : भले ही आज बॉलीवुड में नेपोटिज़्म की कड़ी निंदा की जाती है लेकिन हिंदी सिनेमा की युवा पीढ़ी सिनेमा का टेस्ट बदलने के लिए जी तोड़ मेहनत करती दिखाई दे रही है. अब बात चाहे स्टार किड्स की हो या फिर आउटसाइडर्स की. सिनेमा के जेनर के साथ कई तरह के एक्सपेरिमेंट […]
नई दिल्ली : भले ही आज बॉलीवुड में नेपोटिज़्म की कड़ी निंदा की जाती है लेकिन हिंदी सिनेमा की युवा पीढ़ी सिनेमा का टेस्ट बदलने के लिए जी तोड़ मेहनत करती दिखाई दे रही है. अब बात चाहे स्टार किड्स की हो या फिर आउटसाइडर्स की. सिनेमा के जेनर के साथ कई तरह के एक्सपेरिमेंट करने की हो या फिर दर्शकों तक कुछ नया पहुंचाने की. इस बात का जीता जागता सबूत है जाह्नवी कपूर की फिल्म मिली जो एक सर्वाइवल स्टोरी है. फिल्म आज सिनेमा घरों में आ चुकी है. आइए जानते हैं क्या हैं फिल्म के अच्छे और बुरे पॉइंट्स.
फिल्म में जाह्नवी कपूर की एक्टिंग स्किल और निखरी हुई नज़र आ रही है. जहां स्त्री प्रधान फिल्मों को देखें तो ये उनके करियर की ऐसी तीसरी फिल्म है. इससे पहले हमने उन्हें ‘गुंजन सक्सेना द कारगिल गर्ल’ फिर ‘गुडलक जेरी’ में देखा था. पहली फिल्म से तुलना करें तो इस फिल्म में उनकी एक्टिंग कई पायदान ऊपर है हालांकि अभी भी जाह्नवी को कई जगहों पर काम करने की जरूरत है. लेकिन एक बात साफ़ है कि अगर वह इसी तरह खुद को पर्दे पर एक आत्मनिर्भर स्त्री की तरह पेश करती रहीं तो उनका एक सफल कलाकार बनना तो तय है. वह फिल्म की हीरो की तरह दिखाई दी हैं. उनका किरदार भी काफी जोरदार है लेकिन उनके आगे बाकी के सहायक कलाकार थोड़े फीके नज़र आते हैं.
फिल्म की कहानी साफ़ है जैसा की ट्रेलर में ही दिखाया गया था कि मिली एक फ्रीजर में फंस जाती है और वहाँ से वह कैसे संघर्ष करके बाहर आती है कहानी इसी पर आधारित है. कहानी में आज के जमाने के एक पिता को दिखाया गया है जो अपनी बेटी को उड़ान भरने के लिए पूरा खुला आसमान देते हैं. वह इस बीच प्यार में भी पड़ती है सब कुछ ठीक चल रहा होता है कि एक दिन अचानक मिली गायब हो जाती है. दरअसल वह मानवीय चूक से बड़े से डीप फ्रीजर (एक कमरेनुमा फ्रिज जिसके भीतर पूरा इंसान जाकर सामान रखता निकालता है) में बंद हो जाती है जहां से शुरू होती है संघर्ष की कहानी. फ़िल्म में ना सिर्फ मिली का संघर्ष है बल्कि पुलिस और समाज के रूढ़िवादी व्यवहार पर भी तंज किया गया है.
-फिल्म काफी डीसेंट चलती है. जहां आप बोर नहीं होते हैं लेकिन आपको उतना मज़ा भी नहीं आता है. हालांकि फिल्म ‘हेलेन’ फिल्म से अच्छी है जिससे इंस्पायर होकर इसे बनाया गया है लेकिन फिल्म की कहानी को गैर जरूरी रूप से बढ़ाया गया है. आप फिल्म को देखेंगे तो आपको लगेगा कहानी बेहद छोटी सी है जिसे समेटा भी जा सकता था.
-फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी उसके सहायक कलाकर दिखाई देते हैं. दरअसल सनी कौशल की जगह किसी नए चेहरे को लेना फिल्म में ताजगी ला सकता था. वहीं पिता के किरदार में भी कोई नयापन देखने को नहीं मिलता है. विक्रम कोचर, मनोज पाहवा और संजय सूरी के किरदार भी फींके नज़र आते हैं. हां, अनुराग अरोड़ा और हसलीन कौर का अभिनय आपको फिल्म में बनाए रखता है.
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