नई दिल्लीः पिछले साल यानी 2016 में ग्रेगेरियन कैलेंडर का 313वां दिन था 8 नवंबर. उसी दिन रात 8 बजे राष्ट्र के नाम संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी का ऐलान किया था, जिसे विपक्ष अर्थव्यवस्था का काला दिन बता रहा है और सत्तापक्ष इस तारीख को ‘कालाधन विरोधी दिवस’ घोषित कर चुका है. नोटबंदी की तारीख का रंग काला था, सफेद था, हरा था, लाल था या भगवा, ये राजनीतिक विवाद का विषय हो सकता है लेकिन ये बात निर्विवाद रूप से सत्य है कि नोटबंदी यानी 500 रुपये और 1000 रुपये के नोटों को चलन से बाहर करने का फैसला अर्थव्यवस्था और देश की जनता, दोनों के लिए बेहद कष्टकारी था. प्रधानमंत्री मोदी के ऐलान से अवाक जनता को सिर्फ एक उम्मीद थी कि मोदी जी जो कहते हैं, वो करते हैं. ये उम्मीद, ये विश्वास दोनों चकनाचूर हुआ.
इस संदर्भ में 8 नवंबर, 2016 की तारीख सचमुच ऐतिहासिक मानी जा सकती है कि पहली बार भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के किसी भी राष्ट्राध्यक्ष ने जनता को जो भरोसा दिलाया था, उसे तोड़ा और इतनी बार तोड़ा कि अर्थव्यवस्था के साथ-साथ अपनी मेहनत की कमाई से जुटाया नोट बैंकों में जमा कराने और बदलवाने के लिए आम लोगों की कमर टूट गई. मैं कोई राजनीतिक आरोप नहीं लगा रहा. पिछले एक साल से मैं सिर्फ इस सवाल का उत्तर जानने के लिए परेशान हूं कि क्या भ्रष्टाचार पर प्रहार का तरीका ये भी है कि देश के प्रधानमंत्री देश की जनता से झूठा वादा करें? इस सवाल की बुनियाद पहले ही बताना ज़रूरी है. याद कीजिए और अगर याद ना आ रहा तो पढ़ लीजिए कि 8 नवंबर, 2016 को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने क्या कहा था-
‘बहनों भाइयों, देश को भ्रष्टाचार और काले धन रूपी दीमक से मुक्त कराने के लिए एक और सख्त कदम उठाना ज़रूरी हो गया है. आज मध्य रात्रि यानि 8 नवंबर, 2016 की रात्रि 12 बजे से वर्तमान में जारी 500 रुपये और 1,000 रुपये के करेंसी नोट लीगल टेंडर नहीं रहेंगे यानि ये मुद्राएँ कानूनन अमान्य होंगी. 500 और 1,000 रुपये के पुराने नोटों के जरिए लेन-देन की व्यवस्था आज मध्य रात्रि से उपलब्ध नहीं होगी. भ्रष्टाचार, काले धन और जाली नोट के कारोबार में लिप्त देश विरोधी और समाज विरोधी तत्वों के पास मौजूद 500 एवं 1,000 रुपये के पुराने नोट अब केवल कागज़ के एक टुकड़े के समान रह जायेंगे. ऐसे नागरिक जो संपत्ति, मेहनत और ईमानदारी से कमा रहें हैं, उनके हितों की और उनके हक़ की पूरी रक्षा की जाएगी. ध्यान रहे कि 100 रुपये, 50 रुपये, 20 रुपये, 10 रुपये, 5 रुपये, 2 रुपये और 1 रूपया का नोट और सभी सिक्के नियमित हैं और लेन-देन के लिए उपयोग हो सकते हैं. उस पर कोई रोक नहीं है. हमारा यह कदम देश में भ्रष्टाचार, काला धन एवं जाली नोट के खिलाफ हम जो लड़ाई लड़ रहे हैं, सामान्य नागरिक जो लड़ाई लड़ रहा है, उसको इससे ताकत मिलने वाली है. इन दिनों में देशवासियों को कम से कम तकलीफ का सामना करना पड़े, इसके लिए हमने कुछ व्यवस्था की है:
1- 500 और 1,000 रुपये के पुराने नोट, 10 नवंबर से लेकर 30 दिसंबर, 2016 तक अपने बैंक या डाक घर (पोस्ट ऑफिस) के खाते में बिना किसी सीमा के जमा करवा सकते हैं.
2- आपके पास लगभग 50 दिनों का समय है. अतः नोट जमा करने के लिए आपको अफरा तफरी करने की आवश्यकता नहीं है.
3- आपकी धनराशि आपकी ही रहेगी, आपको कोई चिंता करने की जरूरत नहीं है.
4- 500 रुपये या 1,000 रुपये के पुराने नोटों को खाते में डालकर आप अपनी जरूरत के अनुसार फिर से निकाल सकते हैं.’
उपरोक्त कथन में मैंने कॉमा और फुलस्टॉप तक नहीं बदले हैं. नोटबंदी का उद्देश्य क्या था, वो कितना सफल रहा, इसका विश्लेषण करने से ज्यादा ज़रूरी है कि प्रधानमंत्री के उपरोक्त कथन की विश्वसनीयता जांचना, कम से कम मुझे तो यही सबसे महत्वपूर्ण प्रतीत होता है क्योंकि लोकतंत्र में जनता का विश्वास तोड़ने से बड़ा पाप और कुछ नहीं होता.
प्रधानमंत्री ने नोटबंदी की घोषणा के वक्त जो वादे किए थे, क्या वो पूरे हुए? क्या लोगों को अपना नोट बैंक खाते या पोस्ट ऑफिस में किसी भी सीमा तक जमा कराने की सहूलियत मिली? क्या लोगों को पुराने नोट खाते में डालने के बाद अपनी ज़रूरत के हिसाब से फिर से निकालने की छूट वाकई दी गई थी? दिमाग पर पूरा ज़ोर डालने के बाद भी मुझे याद नहीं आता कि नोटबंदी के दौर में ऐसा कुछ हुआ था. फिर प्रधानमंत्री के वक्तव्य का अर्थ क्या था?
प्रधानमंत्री मोदी की जो छवि 8 नवंबर, 2016 से पहले मेरे मन में थी, वो नोटबंदी के बाद पैदा हुए हालात से टूट गई. नोटबंदी के अगले ही दिन से जिस अंदाज़ में प्रधानमंत्री के वादे टूटे, उससे दिल टूटा और टूटे दिल को बहलाने के लिए बाबा भारती और उनके घोड़े सुलताना की कहानी याद आती रही. बचपन में स्कूल की किताब में वो कहानी बहुत से लोगों ने पढ़ी होगी, जिसमें बाबा भारती के घोड़े को हड़पने के लिए डाकू खड़ग सिंह ने अपाहिज का भेष धरा. बाबा भारती का घोड़ा हड़पा और हतप्रभ बाबा भारती ने डाकू खड़ग सिंह से कहा- ‘यह घोड़ा तुम्हारा हो चुका है. मैं तुमसे इसे वापस करने लिए न कहूंगा परंतु खड़ग सिंह, केवल एक प्रार्थना करता हूं, इसे अस्वीकार न करना. मेरी प्रार्थना केवल यह है कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट ना करना.. लोगों को यदि इस घटना का पता चला तो वे दीन-दुखियों पर विश्वास न करेंगे.’
बाबा भारती का डाकू खड़ग सिंह से संवाद दो व्यक्तियों के मध्य था. वहां सुनने वाला कोई तीसरा नहीं था, लेकिन प्रधानमंत्री ने तो अपना वक्तव्य स्वयं पूरे देश को सुना दिया था. फिर अपने ही कथन को झूठा साबित होता वो क्यों देखते रहे? निश्चित तौर पर नोटबंदी के बाद हुए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में मोदी जी की पार्टी को प्रचंड बहुमत मिला, लेकिन क्या चुनाव में मिली जीत से ये सवाल गौण हो जाता है कि देश के प्रधानमंत्री की बात भी विश्वास के काबिल नहीं रही?