Film Review – जानिए कैसी है फिल्म ‘लखनऊ सेंट्रल’

मुंबई: लखनऊ सेंट्रल एक ऐसी फिल्म है जिसे शायद हर कैदी देखना चाहे और हर जेलर उनकी इस ख्वाहिश को मना करना चाहेगा. फिल्म ठीक उतनी ही है, जितनी आपने प्रोमो या ट्रेलर देखकर सोची होगी. यानी लखनऊ में कैदियों का बैंड और एक कॉम्पटीशन.   असल बात है इस दो लाइन की स्टोरी को अच्छे […]

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Film Review – जानिए कैसी है फिल्म ‘लखनऊ सेंट्रल’

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  • September 15, 2017 8:48 am Asia/KolkataIST, Updated 7 years ago
मुंबई: लखनऊ सेंट्रल एक ऐसी फिल्म है जिसे शायद हर कैदी देखना चाहे और हर जेलर उनकी इस ख्वाहिश को मना करना चाहेगा. फिल्म ठीक उतनी ही है, जितनी आपने प्रोमो या ट्रेलर देखकर सोची होगी. यानी लखनऊ में कैदियों का बैंड और एक कॉम्पटीशन.
 
असल बात है इस दो लाइन की स्टोरी को अच्छे करेक्टर्स, अच्छे डायलॉग्स, बेहतरीन गाने और कसी हुई स्क्रिप्ट के जरिए ऐसे खड़ा करना कि लोग सीट से हिलें नहीं. उसमें काफी हद तक कामयाब भी हुए डायरेक्टर रंजीत तिवारी. लेकिन ऐसी भी नहीं कि दंगल हो जाए. मतलब इस वीकेंड मूवी देखने का मन है, तो देख लेंगे तो निराश नहीं होंगे.
 
 
फिल्म की कहानी रीयल जेल के एक ऐसे रीयल बैंड के बारे में हैं, जिसे प्रशासन ने जेल से बाहर भी परफॉर्म करने की परमीशन दी थी. फिल्म में फरहान अख्तर एक ऐसे युवा किशन के रोल में है, जिसका रोल मॉडल भोजपुरी सिंगर मनोज तिवारी है, और वो भी सिंगर बनना चाहता है, अपना बैंड बनाना चाहता है. लेकिन एक आईएएस के मर्डर में फंसा दिया जाता है, निचली कोर्ट से उम्रकैद के बाद हाईकोर्ट में फांसी की मांग के चलते लखनऊ सेंट्रल जेल भेज दिया गया है.
 
यूपी से सीएम के रोल में रविकिशन हर हाल में चाहते हैं कि इस साल लखनऊ जेल का अपना बैंड बने और वो बाकी जेलों के बैंडों के मुकाबले कॉम्पटीशन जीत ले. डायना पेंटी एक एनजीओ वर्कर के तौर पर ये बैंड बनाने की जिम्मेदारी लेती है, लेकिन जेलर के रोल में रोनित रॉय इसके सख्त खिलाफ है. तो कैसे ये बैंड बनता है और कैसे वो जीतता है, यही सफर है ये मूवी.
 
 
हालांकि मूवी में कुछ डायलॉग पसंद आते हैं, जिनमें से एक आपको बाद तक याद रहेगा, न्याय किसी को नहीं मिलता, मिलता है तो बैड लक या गुड लक. फिर भी डायलॉग पर अगर थोड़ा और काम होता तो बेहतर होता, जिसकी कि इतने नामी करैक्टर्स के चलते काफी गुंजाइश थी. ओस की बूंदों से प्यास नहीं बुझती, या झज्जा के नीचे आने से पहले मैं छाता नहीं छोडता या फिर कुएं का मेढ़क अगर नाली में छुपकर बैठे तो इसे आजादी नहीं कहते जैसे डायलॉग असर तो छोड़ते हैं, लेकिन फिर भी लगता है कि इतने बेहतरीन एक्टर्स का और बेहतरीन इस्तेमाल हो सकता था.
 
इस्तेमान फरहान की आवाज का भी गानों में हो सकता था, इसलिए फरहान की आवाज के आदी हो चुके लोगों को उन गानों में बनावट लगती है. हालांकि फिल्म के तीन गाने आपको पसंद आएंगे रंगदारी, तीन कबूतर और कावा कावा.
 
एक्टिंग के मामले में फिर भी फरहान को पूरी तरह इस्तेमाल नहीं किया गया, रोनित रॉय जरूर जमे हैं. डायना पेंटी, दीपक डोबरियाल, इनामुल हक, राजेश शर्मा, रवि किशन और पंजाबी सिंगर गिप्पी ग्रेवाल अपने करेक्टर्स में रम गए हैं. हालांकि स्क्रिप्ट को थोड़ा टर्न दिया जा सकता था, कई और फिल्मों बजरंगी भाईजान, पोस्टर बॉयज, पिंक आदि की तरह आखिर में फिल्म सोशल मीडिया पर ही फोकस हो गई है. फिल्म में कुछ तकनीकी खामियां भी हैं, लेकिन इमोशंस पर जोर के चलते लॉजिक कमजोर पड़ जाते हैं.
 
जैसे पूरी जेल में एक भी सीसीटीवी कैमरे का ना होना चौंकाता है या फिर एक घंटा पहले जिस डॉन की सत्ता को फरहान खुली चुनौती देता है, हाथ छोड़ देता है, वो फौरन ही उसके गाने पर डांस करे जमता नहीं है. बावजूद इसके फिल्म को इमोशंस और अच्छी एक्टिंग के जरिए ऐसे बनाया गया है कि आप बंधे रहते हैं, हां क्लाइमेक्स और बेहतर हो सकता था. वैसे एक बार देखने लायक तो है ये मूवी, फरहान फैन के लिए तो मस्ट वाच है ही.  

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