पेरिस: आम तौर पर यह माना जाता है कि ओलिम्पिक के बाद होने वाली विश्व कुश्ती चैम्पियनशिप का स्तर उतना कड़ा नहीं होता क्योंकि कई पहलवान उस समय तक या तो रिटायर हो जाते हैं या फिर अपने वज़न में फेरबदल कर लेते हैं. पेरिस में हुई वर्ल्ड चैम्पियनशिप में भी कुछ ऐसे ही हालात थे. मगर न तो भाग्य भारत के साथ था और न ही पहलवानों में जीत का वह जज़्बा दिखाई दिया, जो वर्ल्ड चैम्पियनशिप में दिखना चाहिए था.
भारतीय पहलवानों की हार के दस कारण इस प्रकार हैं-
1. भारत ने इस चैम्पियनशिप में बिना विदेशी कोचों के भाग लिया. तीनों श्रेणियों में कमान भारतीय कोचों के हाथ में थी. भारतीय कोचों की काबिलियत पर किसी को कोई संदेह नहीं है लेकिन आधुनिक कुश्तियों मे नित्य होते बदलावों को देखते हुए विदेशी कोच समय की ज़रूरत है. ये कोच विपक्षी पहलवानों के वीडियो पर केंद्रित रहने के बाद अपने पहलवानों के लिए रणनीति तय करते हैं. कई बार तो चैम्पियनशिप के दौरान विपक्षी पहलवानों की लड़ने की शैली को देखते हुए वह ऑन द स्पॉट अपने पहलवान के लिए नई रणनीति बना देते हैं लेकिन यहां इस दूरदर्शिता की कमी दिखाई दी.
2. भारतीय पहलवानों में कई तो ढर्रे पर चलते दिखाई दिये. ऐसा लगा कि उनके पास प्लान बी है ही नहीं. अगर कोई लेग अटैक में अच्छा है तो वह उसी तकनीक का इस्तेमाल करता दिखाई दिया, बिना यह जाने हुए कि विपक्षी का डिफेंस काफी अच्छा है और वह उसे लेग अटैक का कोई मौका नहीं दे रहा. ऐसी स्थिति में भारतीय पहलवान को उसे गर्दन की पकड़ या कमर के आस-पास के दावों का भी इस्तेमाल करना चाहिए. ऐसा खासकर महिलाओं के मुक़ाबलों में देखने को मिला.
3. भारतीय पहलवानों को मानसिक दृढ़ता की भी ज़रूरत है क्योंकि हाई प्रोफाइल विपक्षी पहलवानों के सामने वह आधी लड़ाई तो मुक़ाबले के शुरू होने से पहले ही गंवा देती हैं.
4. भारतीय पहलवानों को पूरे छह मिनट तक अपनी ऊर्जा बचाकर रखनी चाहिए. कुछ ने तो शुरुआत बहुत अच्छी की लेकिन उसके बाद उनमें वैसी चुस्ती-फुर्ती या चपलता दिखाई नहीं दी, जिसकी कि अंतरराष्ट्रीय कुश्तियों में ज़रूरत होती है. पूजा ढांडा महिलाओं के 58 किलोग्राम वर्ग में चीन की निंगनिंग रोंग के खिलाफ एक समय 8-0 से आगे थीं लेकिन उसके बाद वह अंक पर अंक खोती चली गईं और उन्होंने 8-12 से मुक़ाबला गंवा दिया. इसी तरह विनेश ने अपने प्री क्वॉर्टर फाइनल मुक़ाबले में अमेरिका की विक्टोरिया लेसी एंथनी के खिलाफ बढ़त के बावजूद मुक़ाबला गंवा दिया.
5. ग्रीकोरोमन शैली की कुश्तियों में भारत ने एक तरह से घुटने टेक दिये. ज्ञानेंद्र को छोड़कर कोई भी भारतीय पहलवान इस शैली की कुश्ती में अपनी पहली बाधा को भी पार नहीं कर सका. ज्ञानेंद्र ने ज़रूर दो मुक़ाबले जीते और वह टॉप टेन में रहे. दरअसल, ग्रीकोरोमन शैली में भारत को वर्ल्ड चैम्पियनशिप में अब तक केवल संदीप तुलसी यादव के एकमात्र ब्रॉन्ज़ मेडल के रूप में क़ामयाबी मिली है. यह ऐसा स्टाइल है, जिसमें देश में उतना ध्यान नहीं दिया जाता, जितना कि फ्रीस्टाइल शैली में दिया जाता है. यहां तक कि इस शैली के न तो दंगल होते हैं और न ही प्राइज़ मनी के कोई टूर्नामेंट.
6. भारत के पास आज सीनियर वर्ग में विकल्पों की भी खासी कमी है. कई-कई वज़नों में दो या किसी-किसी में तीन ही ऐसे पहलवान हैं, जो किसी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में अपने चयन को पक्का कर सकते हैं। ऐसे में ज़रूरत है युद्ध स्तर पर जूनियर पहलवानों की खोज करने की. हालांकि भारतीय कुश्ती संघ इस दिशा में काफी सक्रिय है. उसके अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह शुरू से ही जूनियर स्तर पर उभरती प्रतिभाओं को आगे बढ़ने के हिमायती रहे हैं. सम्भव है कि इस प्रदर्शन के बाद जूनियर स्तर के कुछ पहलवानों को भी भविष्य में सीनियर के ट्रायल में उतारने का मौका दिया जाए.
7. इस बार शीतल तोमर और संदीप तोमर के लिए सबसे अच्छा मौका था. शीतल का इसलिए क्योंकि उनका ड्रॉ बहुत अच्छा था, जबकि संदीप का इसलिए क्योंकि उनके वज़न के ओलिम्पिक और वर्ल्ड चैम्पियन व्लादीमिर खिनचेंगाशिविली अपना वज़न बदल चुके थे. वह 57 से 61 किलो में चले गए थे. इसी तरह 2014 और 2015 के वर्ल्ड चैम्पियन अज़रबेज़ान के हाजी अलीयेव भी 61 किलो में थे.
8. एशियाई चैम्पियन बजरंग पूनिया अपना पहला मुक़ाबला जीतने के बाद जार्जिया के उन पहलवान ज़ुराबी से हारे जो बेहद करीबी मुक़ाबला था लेकिन आखिरी क्षणों में वह विपक्षी को पैसिविटी न दिये जाने के रेफरी के विरोध में ही उलझ गये जबकि उनके टीम के कोच ने भी कोई प्रोटेस्ट दर्ज नहीं किया।
9. हमारे हैवीवेट के पहलवानों के लिए विश्व चैम्पियनशिप में कुछ खास स्कोप नहीं है. हालांकि सत्यव्रत ने ग्राउंड पर अपने डिफेंस में सुधार किया है लेकिन अपने से तगड़े पहलवान के सामने वह अपना स्वाभाविक प्रदर्शन भी नहीं कर पाते। सुपर हैवीवेट वर्ग में तो स्थिति और भी खराब है.
10. कुछ भारतीय पहलवानों में गम्भीरता की कमी साफ तौर पर दिखाई दी. कुछ पहलवानों का ध्यान पेरिस पहुंचकर घूमने-फिरने पर ज़्यादा था जबकि वह समय एक तरह से उनके लिए आखिरी समय की परीक्षा की तैयारी करने जैसा था. बहरहाल हो-हल्ला करने से कुछ नहीं होगा. हमें यह समझ लेना चाहिए कि भारत विश्व कुश्ती चैम्पियनशिप में कभी भी ताक़त के तौर पर नहीं उभरा.
सन् 2000 के बाद से जितनी भी वर्ल्ड चैम्पियनशिप हुई है, उनमें भारत को 2006, 2009, 2010, 2012, 2013 और 2015 में ही पदक हासिल हुए हैं. बाकी सभी आयोजनों में भारत खाली हाथ ही लौटा है. 2006 में भी भारत को अलका तोमर को रूप में जो पदक मिला था, वह 1967 के बाद हासिल हुआ. यह जूनियर स्तर पर प्रतिभाओं को ढूंढने का समय है. अगर भारत ने इस दिशा में क़ामयाबी हासिल कर ली तो निश्चय ही भारत इस प्रतियोगिता में खाली हाथ लौटने की भरपाई टोक्यो में होने वाले अगले ओलिम्पिक में ज़रूर कर सकता है.