नई दिल्ली: एनडीए ने रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति का उम्मीदवार बना दिया है. कहा जा रहा है कि देश के सबसे बड़े पद पर एक दलित को बिठाकर बीजेपी देश के सबसे कमजोर तबके को सबसे ज्याता अहमियत देती है. कोविंद साहब को लेकर नीतीश कुमार औऱ लालू प्रसाद यादव में मतभेद तो छोड़िए मनभेद तक दिखने लगा है.
बंगाल में ममता बैनर्जी, राज्य में हिंदुत्व के उभार को मारने के लिये बीजेपी के खिलाफ कांग्रेस के साथ खड़ी हैं. राजनीति के रंग निराले हैं. संविधान जिसके खात्मे की बात करता है राजनीति उसको जिंदा रखने के लिये पूरा खाद पानी देती है. जिन लोगों के नाम को आदर्श मानकर राजनीति करने की कसमें खाई जाती हैं.
उनके कहे किए के खिलाफ ही काम किया जाता है. आज इसलिये मेरे साथ बने रहिए ताकि आपको मैं पूरी तरह ये समझा पाऊं कि सत्ता के लिये जो खेल खेला जाता है उसकी कोई चाल नहीं होती और उसका कोई चेहरा भी नहीं होता.
रामनाथ कोविंद और मीरा कुमार. ये दो नाम इस बार राष्ट्रपति चुनाव के लिये मैदान में हैं. एक एनडीए की तरफ से दूसरा यूपीए की तरफ से. एक के हम में 35 से अधिक दल, दूसरे के पक्ष में 17 से अधिक पार्टियां. दोनों तरफ से दलित कार्ड खेला जा रहा है. इस खेल में कई जगहों पर अपना अपना खेल भी चल रहा है.
कांग्रेस ने मीरा कुमार को अपना उम्मीदवार बनाया. क्यों ? इसलिए कि बीजेपी ने एक दलित को राष्ट्रपति पद पर बिठाने का एलान किया. अब देश की 20 करोड़ की आबादी को कोई भला कैसे नाराज करे! तो कांग्रेस ने कहा कि मेरा उम्मीदवार भी दलित तबके से ही आता है- लेकिन उनके उम्मीदवार से ज्यादा काबिल और पद के लायक. यानी मेरी कमीज उसकी कमीज से सफेद.
बीजेपी कहती है कि भई ये बात आपको तब क्यों याद नहीं आई जब आप बहुमत में थे सरकार चला रहे थे. राष्ट्रपति पद के लिये दलित उम्मीदवार तो आप तब भी उतार सकते थे तब आपने प्रतिभा देवी सिंह पाटील और प्रणव मुखर्जी को बनाया.
2014 के लोकसभा चुनावों में और 2017 के यूपी के चुनावों में दलित समाज बीजेपी के साथ खड़ा हुआ जिसके चलते बंपर जीत नसीब हुई. मायावती के जाटव समुदाय के बाद बचे दलितों को बीजेपी ने अपने साथ खड़ा कर लिया. मायावती की दलित राजनीति खत्म हो गई. रामविलास पासवान और रामदास अठावले जैसे नेताओं को अपने साथ कर मोदी ने उनकी जमीन अपने पास कर ली. और ये सब आज के लिये नहीं बल्कि लंबी रणनीति का हिस्सा है.
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