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Movie Review: बेहतरीन फिल्म है हिंदी मीडियम, कमजोर क्लाइमेक्स उतार सकता है पटरी से

हिंदी मीडियम देखकर जो जवाब मिले, उससे हिंदी मीडियम पास तो हो गई, लेकिन उससे थ्री ईडियट या मुन्ना भाई जैसी करामात की उम्मीद ना करें

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  • May 19, 2017 11:33 am Asia/KolkataIST, Updated 8 years ago
नई दिल्ली: जब हिंदी मीडियम फिल्म के प्रोमोज आए थे तो लोगों को अंदाजा था कि फिल्म की स्टोरी क्या है? फिल्म नर्सरी एडमीशन की मारामारी को लेकर बनी है, फिल्म भारत और इंडिया के बीच अंग्रेजियत के वायरस पर सवाल उठाएगी आदि. अगर इंतजार था तो बस ये जानने का कि क्लाइमेक्स कैसा होगा, सींस कैसे प्लान किए गए होंगे और क्या स्कूल एडमीशन की समस्या का समाधान कुछ मुन्ना भाई टाइप का होगा, जिसकी लोग चर्चा करें.
 
हिंदी मीडियम देखकर जो जवाब मिले, उससे हिंदी मीडियम पास तो हो गई, लेकिन उससे थ्री ईडियट या मुन्ना भाई जैसी करामात की उम्मीद ना करें, ये दोनों ही फिल्में देश के एजुकेशन सिस्टम पर सवाल उठाती हैं और अब हिंदी मीडियम भी. कहानी है चांदनी चौक में फैशन शोरुम चलाने वाले राज बत्रा (इरफान खान) की, जो बड़े फैशन डिजाइनर्स के कपड़ों की ऑरिजनल कॉपी बेचता है, और हर हाल में अपनी बचपन की मोहब्बत और अब वीबी मीता (सबा कमर) को खुश करने में लगा रहता है.
 
 
मीता उसके मुकाबले थोड़ी अपमार्केट है, लेकिन राज पर फिदा है. मीता अपनी बेटी को दिल्ली के टॉप स्कूल में पढ़ाना चाहती है, इसके लिए वो चांदनी चौक से बसंत बिहार में शिफ्ट हो जाती है, कंसलटेंसी सर्विसेज तक लेती है, लेकिन कामयाब नहीं होती क्योंकि कोई भी दुकानदार की बेटी का एडमीशन नहीं लेना चाहता, नेताओं से मदद मांगने के वाबजूद.
 
तब इरफान एडमीशन गैंग के बहकावे में आकर गरीब कोटे में बच्ची का फॉर्म भर देता है और जांच के डर से पूरा परिवार गरीब बनकर एक गरीब गली में जाकर रहना शुरू कर देता है. चैकिंग के बाद उनकी बेटी का तो एडमीशन हो जाता है, लेकिन उनको मदद करने वाले प्रकाश (दीपक डोबरियाल) के बेटे का नहीं, और यहीं से कहानी एक नया मोड लेती है.
 
एक्टिंग की बात करें तो इरफान, सबा कमर और दीपक डोबरियाल ने कमाल कर दिया है, सबा के रूप में आपको पाकिस्तान की पहली ऐसी एक्ट्रेस मिलेगी जो वाकई में पसंद आएगी. उसने एक देसी अपमार्केट नखरे वाली वीबी और आज के जमाने की युवा मां के तौर पर बेहतरीन एक्टिंग की है. इरफान हमेशा की तरह लाजवाब हैं और दिलचस्प बात ये है कि दोनों के ही हिस्से में काफी चुटीले डायलॉग आए हैं, डायलॉग राइटर ने लगता है हिंदी और अंग्रेजी को लेकर ढेर सारे लतीफे भी पढ़ डाले हैं.
 
 
एक सीन था जिसमें मां बच्ची को पकड़कर खींचते हुए ले जा रही है, तो बच्ची बोलती है मां दुख रहा है, मां गुस्से में बोलती है- आज से तुम सब कुछ अंग्रेजी में बोलोगी, तो फौरन बच्ची दुखी होते हुए कहती है-मां इट्स हर्टिंग… आपको ऐसे कई जोक सींस के तौर पर मिलेंगे.
 
तो कहीं-कहीं पूरी अंग्रेजियत पर बड़ा वाला कमेंट भी- जैसे सबा बोलती है- हमारे देश में अंग्रेजी भाषा नहीं है क्लास है और इस क्लास में घुसने का रास्ता इंगलिश मीडियम स्कूल से जाता है. मजाक और व्यंग्य में काफी कुछ कहती है ये फिल्म. हालांकि नेहा धुपिया, अमृता सिंह और संजय सूरी का थोड़ा बेहतर इस्तेमाल हो सकता था.
 
लेकिन एडमीशन से जुड़ी सारी दिक्कतें, गरीब-अमीर, हिंदी-अंग्रेजी सब कुछ समेटने के चक्कर में एक साथ कई लाइफ दिखानी पड़ीं चांदनी चौक की भी, बसंत बिहार की भी और भारत नगर की भी, जिनमें कई सींस आपको गैर जरूरी लगेंगे. प्यार के साइड इफैक्ट्स और शादी के साइड इफैक्ट्स जैसी फिल्में बना चुके साकेत चौधरी ने अपना व्यंग्यात्मक लहजा बरकरार रखा है, लेकिन क्लाइमेक्स थोड़ा और बेहतर हो सकता था.
 
 
वो फिल्म का आखिरी हिस्सा होता है, जिसके जरिए लोग फिल्म का सार अपने साथ ले जाते हैं, वो उतना बेहतर नहीं बन पडा. रईस जैसी फिल्में इसीलिए ज्यादा नहीं चल पाईं. अगर हिंदी मीडियम थोड़ा भी पिछड़ती है तो उसके लिए केवल कमजोर क्लाइमेक्स और कुछ गैर जरूरी सींस जिम्मेदार होंगे. फिर भी वो परिवार के साथ हंसते हुए देखने लायक मूवी है, पैसे वसूल मूवी है.

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