फिल्म रिव्यू: रवीना टंडन की मूवी मातृ भी ‘काबिल’ साबित हो सकती थी मगर….

वीना टंडन की ये मूवी आपको दमन और सत्ता में उनके रोल्स की याद दिलाएगी, ये मूवी रितिक रोशन की हालिया मूवी काबिल साबित हो सकती थी अगर डायरेक्टर ने जितनी मेहनत सींस के सैटअप, लाइटिंग और कैमरा पर की है, उतनी ही स्क्रीनप्ले पर कर लेता. हो सकता है बहुत लोगों को इसी हफ्ते रिलीज हुई नूर से ज्यादा पसंद आए.

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फिल्म रिव्यू: रवीना टंडन की मूवी मातृ भी ‘काबिल’ साबित हो सकती थी मगर….

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  • April 21, 2017 3:19 pm Asia/KolkataIST, Updated 8 years ago
नई दिल्ली: रवीना टंडन की ये मूवी आपको दमन और सत्ता में उनके रोल्स की याद दिलाएगी, ये मूवी रितिक रोशन की हालिया मूवी काबिल साबित हो सकती थी अगर डायरेक्टर ने जितनी मेहनत सींस के सैटअप, लाइटिंग और कैमरा पर की है, उतनी ही स्क्रीनप्ले पर कर लेता. हो सकता है बहुत लोगों को इसी हफ्ते रिलीज हुई नूर से ज्यादा पसंद आए.
 
मूवी की कहानी बिलकुल काबिल जैसी है, उसमें एक लाचार आंखों से मरहूम बंदा रोहन (रितिक) अपनी सुंदर बीबी के रेप का बदला एक एक करके लोकल पार्षद के गुंडा भाई और उसके दोस्तों से जैसे प्लानिंग करके लेता है, वैसा ही बदला इस मूवी में एक लाचार मां विद्या चौहान (रवीना टंडन) अपनी बेटी के रेप और मर्डर का बदला सीएम के बेटे और उसके दोस्तों से लेती है.
 
दोनों मूवीज में सत्ता के आगे लाचार पुलिस इंस्पेक्टर ही केस को दबाते हैं, और उन्हें पता भी होता है कि कि विक्टिम बदला ले रहा है, लेकिन उसे रोक नहीं पाते. फर्क सिर्फ इतना था कि काबिल में जहां संजय गुप्ता जैसा थ्रिलकर फिल्मों का तजुर्बेकार डायरेक्टर था, तो मातृ में अश्तर सईद जैसा नया नाम था. उसने सींस के सैटअप, लाइटिंग और कैमरा वर्क पर वाकई में अच्छा काम भी किया.
 
एक्टिंग की बात करें तो रवीना ने पूरी मेहनत की है, मेन विलेन यानी सीएम के बेटे के रूप में मधुर मित्तल भी रोल में फिट हैं तो इंस्पेक्टर के रोल में अनुराग अरोरा और रवीना की सहेली के रोल में दिव्या जगदाले के अलावा और कोई करेक्टर आपको ढंग से याद नहीं रहता. पाकिस्तानी सूफी बैंड फ्यूजन ने म्यूजिक दिया है, लेकिन मूवी को असरदार बनाने के लिए एक ही गाना काफी था, गानों की जरूरत मूवी में थी भी नहीं.
 
आप इस मूवी को नूर से बेहतर मान सकते हैं क्योंकि नूर में जहां कई बार लगता है कि कहानी में कई सींस बेमतलब के हैं, वहीं मातृ में आप शायद ही कोई ऐसा सीन ढूंढ पाएं. फिल्म में काफी पेस है, जो ऐसी मूवीज में होता है. दिक्कत ये हुई कि कई बातें या कई सींस आपको कनविंसिंग नहीं लगते. जैसे तुगलक रोड थाने का इंस्पेक्टर गुणगांव के होटल ली मेरीडियन में भी मौजूद है और सीएम की सिक्योरिटी में भी.
 
दिल्ली के सीएम का बेटे पर आरोप लगाने के बावजूद मीडिया में एक खबर ना चलना. अगर कोई गैंग रेप की विक्टिम हॉस्पिटल से बाहर निकलती है, तो उसका बयान लेने के लिए मीडिया मौजूद नहीं. अपराधियों को मारने की रवीना की प्लानिंग भी काबिल के रितिक की तरह फुलप्रूफ नहीं थी, हर मौत में झोल था.
 
ऐसी मूवीज में आपको सीन दर सीन ध्यान रखना पड़ता है कि ऑडियंस लॉजिक लगाएंगे, पुलिस चाहती तो रवीना की बेटी की सहेली से भी रवीना का नाम उगलवा सकते थे. अगर सीएम के थप्पड़ ना पड़ता तो रवीना सीएम या उसके बेटे से बदला कैसे लेती, अगर सिगरेट सुलगाने से पहले सीएम के बेटे ने किसी को फोन कर दिया होता तो, सीएम के घर में रिवॉल्वर कैसे पहुंचा, एक अबला टीचर के पास रिवॉल्वर का साइलेंसर कैसे आया, उसको क्या पता था कि प्रॉपर्टी दिखाने वाला अपराधी सुसाइड ही करेगा? ऐसे में स्क्रीन प्ले में काफी लोचे थे.
 
जिससे काफी पेस में बनी फिल्म आपको सीट से बांधे तो रखती है, सस्पेंस भी बनाए रखती है, लेकिन दिमाग में उठने वाले कई सवाल डायरेक्टर की अक्ल पर सवाल उठाने लगते हैं. फिर लगता है कि अच्छी खासी जा रही मूवी का कबाड़ा कर दिया.
 
हालांकि इसकी वजह ये भी हो सकती है क्योंकि कहानी एक अमेरिकी माइकल पेलिको की है, जो फिल्म का प्रोडयूसर भी है. उसने एक नए भारतीय डायरेक्टर पर भरोसा करके मूवी बनाने को दी, जिसने कम से एक पार्ट ढीला छोड़ दिया, एक जासूसी उपन्यास की तरह अपने ऑडियंस को हर प्वॉइंट पर कनविंस करने का.

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