नई दिल्ली: विश्व कुश्ती चैम्पियनशिप में रजत पदक जीत चुके बिशम्बर पहलवान के नाम पर उनके रेलवे किशनगंज अखाड़े के बाहर चौक का नामकरण किया गया है. कांग्रेस के पूर्व सांसद अजय माकन ने इस चौक का उद्घाटन किया.
इस मौके पर योगेश्वर दत्त सहित सौ से ज़्यादा पहलवान उपस्थित थे. गुरु बिशम्बर ने 1966 के किंगस्टन (जमैका) में कॉमनवेल्थ गेम्स में स्वर्ण पदक हासिल किया था. उसी वर्ष बैंकॉक एशियाई खेलों में उन्हें कांस्य पदक हासिल हुआ. इसके अलावा वह 1964 और 1968 के ओलिम्पिक में भी भाग ले चुके थे.
प्रस्तुत है उनकी यादों को समेटे खेल समीक्षक और कमेंटेटर मनोज जोशी के कुछ संस्मरण-
वह मेरे पथ-प्रदर्शक थे
रविवार को बिशम्बरजी के सुपुत्र छोटू के फोन आते ही मैं अतीत में खो गया. बिशम्बर जी को मैं अपना पड़ोसी कहूं, पिता का मित्र कहूं, आला दर्जे का पहलवान कहूं, कुश्ती गुरु कहूं या कुछ और… समझ में नहीं आ रहा लेकिन मैं अपने निजी अनुभवों के आधार पर उन्हें अपना पथ-प्रदर्शक ज़रूर कह सकता हूं. उनकी हर राय मेरे लिए एक प्रेरणा हुआ करती थी.
जब मैं उनसे कुश्ती के पुराने रिकार्डों के बारे में पूछा करता तो वह घर के एक बड़े सदस्य की तरह मुझे टोक देते थे. उनकी यह सीख जीवन में मेरे बहुत काम आई कि बतौर पत्रकार मेरी समाज के प्रति यह ज़िम्मेदारी बनती है कि मैं कुछ नया सबको दूं. एक दिन तो उन्होंने मुझसे कहा था कि उन्होंने किस वर्ष में वर्ल्ड चैम्पियनशिप का रजत पदक जीता, यह सवाल किसी पत्रकार से सुनना उन्हें अच्छा नहीं लगता था.
वह मुझसे हमेशा नई जानकारी की उम्मीद करते थे. कुश्ती के आयोजनों के दौरान मेरी उनसे ज़्यादा मुलाक़ात दिल्ली और महाराष्ट्र में हुई. इस दौरान जब भी मैं उन्हें कुश्ती पर कुछ नई जानकारी देता, वह बहुत खुश होते. उनकी यह सीख मुझे बतौर कमेंटेटर बहुत काम आई. वह अक्सर कहा करते थे कि यदि कुछ अलग करना है तो आप को मेहनत भी बाकियों से अलग करनी होगी.
जब सब सो जाते तो वो ज्यादा मेहनत करते
उन्होंने नेशनल कैम्प के अपने अनुभव मुझसे साझा करते हुए बताया था कि ट्रेनिंग सेशन खत्म होने के बाद जब हमारा पूरा दल आराम करता था तो वह उठकर ग्राउंड में दौड़कर कुछ चक्कर लगाते थे. इससे उनमें आत्मविश्वास बढ़ता और कुछ अलग करने की इच्छा पैदा होती. अपनी इसी इच्छा शक्ति की वजह से बिशम्बर जी विश्व स्तर पर सबसे बड़ी उपलब्धि हासिल करने वाले देश के पहले पहलवान बने. यह सीख निश्चय ही आज के पहलवानों के लिए कारगर साबित हो सकती है.
सादगी ही पहचान
उनकी सादगी ही उनकी पहचान थी. कभी किशनगंज अखाड़े में खीर की दावत देना, कभी नवभारत टाइम्स के कार्यालय में आकर मिठाई बांटना और हंसाने वाली बातें करना कभी न भूलने वाली घटनाएं हैं. मैंने अपनी एक पुस्तक में एक अध्याय उन पर लिखा लेकिन मुझे अफसोस है कि वह पुस्तक उनके बाद प्रकाशित हो पाई.
उनके बेटे छोटू के फोन से पता चला कि किशनगंज में एक चौराहे का नाम उनके नाम पर रखा गया है, सुनकर गर्व से सीना चौड़ा हो गया. आज मैं गर्व से कह सकता हूं कि मैं विशम्बर जी के सम्पर्क में था और वह मेरे पथ-प्रदर्शक थे.