नई दिल्ली: राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ (RSS) के प्रमुख मोहन भगवत इन दिनों मध्य प्रदेश के होशंगाबाद में हैं. होशंगाबाद के करीब 100 किलोमीटर दूर बनखेड़ी नाम की जगह पर आज वो एक खास वजह से मौजूद रहेंगे, चर्चा है कि पतंजलि की तर्ज पर वो RSS का एक ब्रांड लॉन्च करेंग, जिसका नाम होगा सृजन.
उस ब्रांड के तहत सबसे पहले एक अगरबत्ती ब्रांड और एक वाशिंग पाउडर ब्रांच भी आज ही लांच किया जाएगा. हमने समझने की कोशिश की क्या वाकई RSS पतंजलि की राह पर उतरकर मार्केट में अपने प्रोडक्ट्स उतारने जा रहा है.
दरअसल RSS और RSS से जुड़े पदाधिकारी कई संगठनों के मेंटर के तौर पर काम करते हैं, उन्हें तमाम तरह से गाइडेंस और सपोर्ट करते हैं औऱ वो संगठन समाज के अलग अलग क्षेत्रों में काम करते हैं. फरह का दीनदयाल शोध संस्थान से लेकर दिल्ली के दीनदयाल रिसर्च फाउंडेशन तक ऐसे सैकड़ों संगठन पूरे देश भर में हैं. ये संगठन आमतौर पर स्वायत्त होते हैं, अपने खर्चे खुद निकालते हैं और अगर नहीं होते तो उन्हें ऐसा बनाने पर मेहनत की जाती है.
ऐसा ही एक संगठन है भाऊसाहब भुस्कुटे न्यास, जो होशंगाबाद के पास बनखेड़ी मे है और उसके तहत आदिवासी और जनजातीय प्रजातियों के कल्याण के लिए कुछ कार्यक्रम चलाए जाते हैं. संघ के वरिष्ठ प्रचारक सुरेश सोनी एक तरह से उसके मेंटर हैं, इस संगठन में आदिवासियों को अपने पैरों पर खड़े करने की दिशा में भी कुछ जॉब ट्रेनिंग दी जाती हैं. 150 एकड़ में बनी इस ज्ञानपीठ में एक प्रोजेक्ट चलाया जा रहा है मेरा गांव मेरा तीर्थ, जिसके तहत 9 अलग अलग तरह की विधाओं में लोगों को ट्रेनिंग दी जा रही है.
उसी दिशा में काम आगे बढ़ाते हुए सृजन नाम का एक ब्रांड प्रोजेक्ट शुरू किया जा रहा है, जिन आदिवासियों को अगरबत्ती और वाशिंग पाउडर बनाने की ट्रेनिंग दी गई है, उनको इनके प्रोडक्शन में लगाया जाएगा. बहुत छोटे स्तर पर इसका प्रोडक्शन और सेल्स शुरू होगी, जो आसपास के करीब 1000 लोगों के परिवारों की रोजी रोजी में लाभ पहुंचाएगी.
मोहन भागवत आज इन दो प्रोडक्ट्स को लांच करेंगे. अगरबत्ती के ब्रांड का नाम गोविंद होगा. देखा जाए तो ये प्रोडक्ट संघ से जुड़े होंगे, लेकिन संघ से इनका सीधा कोई लेना देना नहीं होगा, ना ही ये पतंजलि के लिए कोई खतरा होंगे. माना ये जा रहा है कि गरीबी के चलते इस इलाके में आदिवासियों का धर्मांतरण पड़े पैमाने पर होने की शिकायत के बाद इस तरह के कार्यक्रम शुरू किए गए हैं, ताकि आदिवासी अपनी रोजी रोजी के और विकल्प भी पा सके.