नई दिल्ली: कोहिनूर हीरे को देश का बच्चा बच्चा जानता है, अक्सर सरकारें फंस जाती हैं इस सवाल पर कि कोहिनूर को लाने के लिए क्या कर रही हैं? हर सरकार ब्रिटिश सरकार से बात करने का वायदा करती है और एक दो लैटर लिखा कर मामले को ठंडे बस्ते में डालने में यकीन करती आई हैं.
ऐसे में चिराग तले अंधेरा वाली बात तब होती है, जब कोहिनूर के चक्कर में बाकी धरोहरों को कोई वापस लाने की ना मांग करता है और ना ही आम जनता को उसके बारे में पता है. सोचिए, कोहिनूर का ही एक भाई ‘दरिया ए नूर’ हीरा आज ईरान के कब्जे में है और उसकी आखिरी कीमत 10 बिलियन डॉलर आंकी गई थी. हालांकि इन हीरों के कुछ और नाम थे, जिनको बाद में मुस्लिम शासकों ने बदलकर कुछ और कर दिया.
दरिया ए नूर को कोहिनूर का भाई इसलिए कहा जाता है क्योंकि दोनों आंध्रप्रदेश के गोलकुंडा की एक ही खान से निकले थे. दोनों को ही वहां के शासक काकतीय वंश के राजाओं को सौंप दिया गया था. दोनों को ही अलाउद्दीन खिलजी का सेनानायक हिजड़ा मलिक काफूर दिल्ली लेकर आया था. उस वक्त काकतीय वंश के राजा प्रताप रुद्र देव थे, उन्होंने एक बार अलाउद्दीन की सेना को हराकर वापस लौटा दिया था.
इससे अलाउद्दीन खार खाए बैठा था, उसने मलिक काफूर को बड़ी सेना के साथ काकतीय राजा पर हमला करने के लिए भेजा. काफूर ने पूरे राज्य को घेर लिया और राज्य की रसद लाइन काट दी. कई दिनों के घेरे के बाद प्रताप रुद्र देव ने हार मान ली और संधि कर ली. इसी मौके पर प्रताप रुद्र देव को कोहिनूर और दरिया ए नूर हीरे भी काफूर को देने पड़े.
वो हीरे दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों से होते हुए बाबर के हाथ लगे. बाद में शाहजहां ने कोहिनूर को अपने मयूर सिंहासन में जड़वा दिया. दरिया ए नूर दुनियां में अब तक निकाले गए सभी गुलाबी हीरों में सबसे बड़ा था. वो 186 कैरेट का था. उतना ही जितना कि कोहिनूर था, जिसे बाद में काटकर 105 कैरेट का कर दिया गया था. दरिया ए नूर यानी रोशनी का सागर. फ्रांसीसी यात्री और हीरों का जौहरी ट्रेवर्नियर ने दरिया ए नूर को शाहजहां के पास देखा था और उसके बारे में भी लिखा था और उसे टेबल कट डायमंड बताया था.
मुगल शासक मोहम्मद के वक्त 13 फरवरी 1739 को करनाल युद्ध में नादिर शाह ने महज तीन घंटे में मुगल सेना को परास्त कर दिया और दिल्ली को जमकर लूटा, कत्ले आम मचाया. खौफ में आकर मोहम्मद शाह रंगीला ने अपने खजाने की चाभी नादिर शाह को सौंप दी. नादिर शाह कोहिनूर समेत मयूर सिंहासन और दरिया ए नूर को भी अपने साथ ईरान ले गया. जब नादिर शाह की मौत की खबर उड़ी तो गुस्से में नादिर शाह ने दिल्ली में बीस से तीस हजार लोगों का कत्ल कर दिया था.
उसके बाद कोहिनूर की कहानी तो सबको पता है लेकिन दरिया ए नूर की कहानी में ट्विस्ट आ जाता है. 8 साल बाद नादिर शाह की हत्या कर दी जाती है और कोहिनूर उसके सिपाहसालार अहमद अली शाह दुर्रानी या अब्दाली के हाथों पड़ जाता है, जो अफगानिस्तान का राज संभाल लेता है. कोहिनूर को देखकर ही उसने भारत लूटने की योजना बनाई थी, पानीपत का तीसरा युद्ध उससे ही लड़ा गया था.
उसके मरने के बाद उसी वंश का शाहशुजा जब रूसी आक्रमण और घरेलू विद्रोह की वजह से भागकर लाहौर आता है तो सिख राजा रणजीत सिंह उसकी मदद करते हैं, बदले में वापस मिलता है कोहिनूर. बहुत से लोगों का कहना है कि कोहिनूर के साथ दरिया ए नूर भी उनको मिला और बाद में उनसे संधि करके ब्रिटिश सरकार ने ले लिया. क्वीन ने बाद में दरिया ए नूर को वापस कर दिया और उसकी नीलामी करवाई, जिसे ढाका के एक नवाब ने खरीद लिया. जो बाद में बांग्लादेश की सम्पत्ति बन गया और कोई खरीद कर ईरान ले गया.
लेकिन ईरान के इतिहासकार कुछ अलग कहते हैं, उनके मुताबिक दरिया ए नूर नादिर शाह की मौत के बाद उसके नाती शाहरुख के कब्जे में आ गया था और आज उनके उस रॉयल क्राउन में जड़ा हुआ है, जिसे उनके शासक समय समय पर पहनते रहे. ये मुकुट दो किलो का है और इसमें 324 हीरे जड़े हुए हैं.
हीरे के पारखियों को लगता है कि दरिया ए नूर को दो भागों में बांट दिया गया होगा क्योंकि दरिया ए नूर जैसा ही एक छोटा हीरा, जो किसी बड़े हीरो में से कटा हुआ है, भी इसी क्राउन का हिस्सा है, उसका नाम है नूर उल आइन. शाहरुख मिर्जा के बाद भी यह ईरान के अलग अलग राजाओं के कब्जे में रहा. फताली शाह कजर ने तो हीरे पर अपना नाम तक गुदवा दिया. ईरान के पहलवी राजवंश के रेजा शाह ने 1926 में इसे अपना राजतिलक के दिन पहना तो मोहम्मद रेजा शाह ने 1967 में.
हालांकि अंग्रेजों ने ये दावा किया कि लंदन में 1851 में उन्होंने जो एक्जीबीशन लगाई थी, उसमें कोहिनूर के साथ दरिया ए नूर को भी रखा गया था और अगले साल हुई नीलामी में उसे ढाका के नवाब अलीमुल्लाह ने खरीद लिया था. 1887 में बंगाल के बालीगंज के दौरे के दौरान लॉर्ड डफरिन ने उसे देखा भी था. 1912 में जब क्वीन मैरी और किंग जॉर्ज पंचम जब भारत दौरे पर आए थे, तो कोलकाता में ये हीरा भी देखने गए.
एक और दिलचस्प तथ्य ये है कि जिस डॉ. जॉन लॉगिन ने रणजीत सिंह के तोशाखाने के हीरे जवाहरातों की लिस्ट बनाने में तीन महीने लिए थे, उसने दरिया ए नूर की कीमत 63,000 रुपए लगाई थी यानी 1840 के वक्त ये 6000 डॉलर होते थे. इस वक्त ये कीमत मिलियन डॉलर में होगी. वाबजूद इसके किसी भी एक्टिविस्ट या सरकार को ये पता है कि वर्तमान में हीरा ईरान सरकार के पास है, या फिर बांग्ला देश की सरकार के पास और ना ही जानने की दिलचस्पी ही है.