भारत की स्वतंत्रता के इतिहास में आज भी बहुत सारे ऐसे नायक हैं जिनका नाम भुला दिया गया. ऐसे ही एक वीर थे कुंवर सिंह. वीर कुंवर सिंह को 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का भीष्म पितामह भी कहा जाता है. वे खाली विचारों से योद्धाओं को उत्साहित बजाय बिस्तर पर दवाइयों के सहारे जिंदा रहने की उम्र में उन्हीं की तरह घोडे पर बैठकर जंग-ए-मैदान में किले फतह करते थे.
नई दिल्ली. 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम में अगर आप जब सबसे बूढ़े योद्धा या क्रांतिकारी की बात करेंगे तो ज्यादातर लोग आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की ही बात करेंगे. क्योंकि रंगून में कैद करने के बाद की उनकी एक फोटो कई किताबों या सोशल मीडिया साइट्स पर मिल जाती है. जबकि हकीकत ये थी कि भले ही उनके बेटों को उनकी आंखों के सामने गोली मार दी गई, उनको स्वतंत्रता संग्राम के कई नेताओं ने अपना नेता माना था, लेकिन वो मैदान में लड़ने की स्थिति में नहीं थे. 80 साल की उम्र का एक और योद्धा था जिसने 1857 की क्रांति में हिस्सा लिया था, लेकिन वो मैदान में ना केवल उतरा बल्कि सबसे लम्बे अरसे तक अंग्रेजों से जमकर लोहा लेता रहा और जिंदा उनके हाथ में भी नहीं आया. वीर क्रांतिकारी कुंवर सिंह को 1857 के इतिहास का ‘भीष्म पितामह’ कहा जाता है, जो खाली विचारों से योद्धाओं को उत्साहित नहीं करता था, बल्कि उन्हीं की तरह बिस्तर पर दवाइयों के सहारे जिंदा रहने की उम्र में घोडे पर बैठकर जंग-ए-मैदान में किले फतह करता था.
बिहार के भोजपुर के राजसी खानदान से ताल्लुक रखते थे कुंवर सिंह. भोजपुर यानी ‘कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली’ वाले महाराजा भोज की नगरी और खानदान से ताल्लुक रखते थे कुंवर सिंह. उनकी पत्नी मेवाड़ के सिसौदिया खानदान की थीं, जो रहते तो गया में थे, लेकिन रिश्ता सीधे महाराणा प्रताप के खानदान से था. दोनों खानदानों की दरियादिली, साहित्य, प्रेम और वीरता की दास्तानों को सुनते सुनते बड़े हुए थे कुंवर सिंह और उनके छोटे भाई अमर सिंह. देश को गुलाम देखकर उनकी आत्मा कचोटती थी, लेकिन छोटे से जगदीशपुर के राजा थे वो, इतने बड़े देश पर कब्जा जमाए बैठे अंग्रेजों से अकेले कैसे टकराते, ये सोचकर मन मसोस कर रह जाते थे. फिर 1857 के क्रांतिकारियों ने उनसे सम्पर्क साधा. पूरे देश सहित बिहार में भी कमल और रोटी का संदेश गुप्त बैठकों के जरिए पहुंचाया जाने लगा. हालांकि 1857 के गदर से आम आदमी पूरी तरह नहीं जुड़ा था. अंग्रेजों के चलते अपनी राजसी गद्दी खोने वाले राजा, चर्बी वाले कारतूसों से परेशान सिपाही और मुगल बादशाह को फिर से दिल्ली की गद्दी पर पूरी ताकत के साथ बैठाने का सपना देखने वाले लोग ज्यादा थे.
29 मार्च 1857 को मंगल पांडेय ने बैरकपुर में बंगाल नेटिव इन्फेंट्री की 34वीं रेजीमेंट से विद्रोह का बिगुल बजा दिया. उसके बाद क्रांतिकारियों ने सैनिकों के बीच सुलग रही इस चिनगारी को देश भर की छावनियों के सैनिकों के बीच आग में तब्दील करने का फैसला किया. कम्युनिकेशन के साधनों की कमी से हरकारों के जरिए कमल और रोटी के साथ साथ क्रांति की तारीख 10 मई का संदेश ज्यादा से ज्यादा अंग्रेजी राज के दुश्मनों तक पहुंचाया गया. पटना में किताबें बेचने वाले पीर अली ने इस क्रांति की बागडोर संभाल ली. लेकिन पटना का कमिश्नर टेलर काफी चालाक था, उसकी बहावी आंदोलन की वजह से पटना के सभी सरकार विरोधी तत्वों पर कड़ी नजर थी. पीर अली ने साथियों से मशवरा करके तीन जुलाई को क्रांति का बिगुल पटना में भी बजाने का तय किया, लेकिन पहले ही कई लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया. फिर भी दो सौ नौजवान हथियारों से लैस होकर निकले, सभी को गिरफ्तार कर लिया गया. कइयों को फांसी पर लटका दिया गया. पीर अली को फांसी की खबर मिलते ही दानापुर की सैनिक छावनी में विद्रोह हो गया और तीन सैनिक पलटनों ने हथियार उठा लिए, लेकिन कोई योग्य नेता उनके पास नहीं था. सारे सैनिक जगदीशपुर (आरा) की तरफ कूच कर गए, कुंवर सिंह से बेहतर कोई नहीं था. भीष्म पितामह की तरह ही कुंवर सिंह जो उस वक्त अस्सी साल के थे, बहादुर शाह जफर से सिर्फ दो साल छोटे, मातृभूमि का कर्ज चुकाने के लिए सैनिकों के साथ हथियार उठाने के लिए तैयार हो गए.
सबसे पहले आरा में अंग्रेजों के खजाने पर कब्जा किया गया ताकि लम्बी लड़ाई के लिए तैयार हुआ जा सके. दिलचस्प बात ये थी कि कुंवर सिंह को ये पता था कि अंग्रेजों से सीधी लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती, उनके पास ज्यादा सेना, ज्यादा हथियार, ज्यादा आधुनिक हथियार और गोला बारूद थे. इसलिए उन्होंने शिवाजी की तरह छापामार या गौरिल्ला वॉर की रणनीति अपनाई. उसी दिन से वो जंगलों में निकल गए महाराणा प्रताप की तरह. अंग्रेजों पर अचानक हमला बोलते और सीधी लड़ाई से बचते. अंग्रेजों को अलग अलग टुकड़ियों के जरिए कई जगह पर फंसाते, और उसे अपनी रणनीति का पता नहीं लगने देते. अंग्रेजी जनरल उनकी इस रणनीति से चारों खाने चित थे. ऐसे वक्त में जब 1857 के बड़े बड़े सूरमा धराशाई हो गए, या जल्द ही गिरफ्तार हो गए, वो उन दो तीन योद्धाओं में शामिल थे, जो अपनी लड़ाई एक साल से ज्यादा समय तक खींचने में कामयाब रहे और अंग्रेज उन्हें ना पकड़ पाए और ना मार पाए.
सबसे पहले उन्होंने पास की एक छावनी पर कब्जा किया, अंग्रेजी कप्तान डनबार को जैसे ही खबर मिली, वो एक बड़ी सेना के साथ वहां आया लेकिन कुंवर सिंह ने पहले ही अपना घेरा हटा दिया और जंगलो में छिप गए और अपने जासूसों को डनबार के पीछे लगा दिया. डनबार सेना समेत जैसे ही जंगल में घुसा, कुंवर सिंह के सैनिकों ने उन पर गोलियों बरसानी शुरू कर दीं. पचास अंग्रेज सैनिक ही जिंदा बच पाए. इस बुरी हार पर तिलमिलाए अंग्रेजों ने एक बड़ी सेना के साथ मेजर आयर को भेजा, उसने आरा की तरफ कूच किया, कुंवर सिंह पीछे हट गए. जगदीशपुर में एक और बडी अंग्रेजी सेना ने विंसेंट आयर के साथ घेरा डाल दिया. कुंवर सिंह के पास केवल 1700 सैनिक थे, ना लड़ना फायदेमंद होता और ना हथियार डालना ही, उन्होंने तीसरा रास्ता चुना, वो निकल भागे. जंगल के चप्पे चप्पे की उनको राणा प्रताप और शिवाजी की तरह कड़ी पकड़ थी. अब अंग्रेजों के छोटे छोटे जत्थों पर अचानक हमला बोलकर उनको मौत के घाट उतारने की रणनीति को अमल में लाया गया. अंग्रेजों के खेमे में हंगामा मच गया.
इतना ही नहीं उन्होंने बिहार से निकलकर उत्तर प्रदेश तक हमले करने शुरू कर दिए. आजमगढ़, बनारस और इलाहाबाद तक कुंवर सिंह के दायरे में आ गए. इधर बेतवा के कुछ क्रांतिकारी भी उनसे आ मिले. कप्तान मिलमन की सेना को कुंवर सिंह ने जमकर शिकस्त दी और रास्ते में कर्नल डेम्स की सेना को बुरी तरह हराने के बाद कुंवर सिंह ने आजमगढ़ को घेर लिया. भाई अमर सिंह को घेरेबंदी की कमान देकर वो तेजी से रात में ही बिजली की तेजी से बनारस पहुंच गए, लखनऊ के क्रांतिकारी भी उनसे आ मिले. लेकिन बनारस में तैनात अंग्रेजी अफसर लार्ड मार्कर सावधान था, उसने वहां तोपें तक तैनात कर रखी थीं.
लेकिन कुंवर सिंह का निशाना तो जगदीशपुर था, बनारस, आजमगढ़, गाजीपुर आदि पर वो हमला केवल अंग्रेजों को उलझाने के लिए कर रहे थे. उन्होंने बनारस पर हमला बोला और बीच हमले में से सारे सैनिक धीरे से निकल गए. अंग्रेजी सेना को लगा कि वो आजमगढ़ जाएंगे, लार्ड मार्कर आजमगढ़ की तरफ बढ़ा. अब कुंवर सिंह को आजमगढ़ की दो तरफ से रक्षा करनी थी, एक तरफ से मार्कर की सेना बढ़ रही थी, दूसरी तरफ से एक टुकड़ी कैप्टन लुगार्ड के साथ तानू नदी की तरफ बढ़ रही थी. कुंवर सिंह तानू नदी पर एक छापामार टुकड़ी पहले ही तैनात करके आए थे, और खुद वो गाजीपुर की तरफ निकल गए. तानू नदी पर इस टुकड़ी ने कई घंटों तक लुगार्ड को उलझाए रखा और बिना लुगार्ड की जानकारी के वो अगले मोर्चे पर निकल गई. जब लुगार्ड ने पुल पार किया वहां कोई नहीं था.
तब लुगार्ड को पता चला कि कुंवर सिंह तो गाजीपुर के रास्ते में है, तो लुगार्ड ने अपनी सेना का रुख उस तरफ कर दिया. लेकिन कुंवर सिंह ने बीच में ही मोर्चा सजा रखा था, लुगार्ड की सेना को जमकर हराया. नौ महीने से घर से बाहर जगदीश सिंह गंगा पार कर जगदीशपुर जाना चाहते थे, अब अंग्रेजी सेना ने नए सेनापति डगलस को भेजा. कुंवर सिंह ने डगलस के खेमे में गलत खबर भिजवा दी कि बलिया के पास हाथियों पर बैठकर सेना गंगा पार करवाएंगे, डगलस बेवकूफों की तरह वहां तैनात हो गया और कुंवर की सेना शिवराजपुर में नावों के रास्ते निकल गई. पूरी सेना को पार करवा कर आखिरी नाव में कुंवर सिंह सवार हुए कि बौखलाया डगलस वहां पहुंच गया, उसने गोलियां बरसाना शुरू कर दिया. कुंवर सिंह के बाएं हाथ में एक गोली लगी, कहीं पूरे शरीर में जहर ना फैल जाए ये सोचकर 1857 के उस भीष्म पितामह ने 80 साल की उम्र में अपने दाएं हाथ की तलवार से अपना ही बायां हाथ काट डाला.
जगदीशपुर में कर्नल ली ग्रांड की सेना को कुंवर सिंह ने एक ही हाथ से बुरी तरह से हराया. तेईस अप्रैल 1858 को कुंवर सिंह ने जगदीशपुर पर फिर से जीत प्राप्त करने के बाद अपने महल में प्रवेश किया, यूनियन जैक को उतारकर अपना झंडा फहराया, लेकिन गोली का जहर उनके शरीर में फैल चुका था. वो पहले से ही बुढ़ापे से जुड़ी सारी बीमारियों से जूझ रहे थे, तीन दिन के अंदर यानी 26 अप्रैल को उनकी मौत हो गई, दिलचस्प बात है कि वो अप्रैल के महीने में 23 तारीख को ही पैदा हुए थे. बाद में 1966 में केन्द्र सरकार ने उन पर एक डाक टिकट छापा तो बिहार सरकार ने 1992 में आरा में उनके नाम पर एक यूनीवर्सिटी की स्थापना की. सुभद्रा कुमारी चौहान ने झांसी की रानी पर जो कविता लिखी, उसमें बाकी क्रांतिकारियों के साथ उनके भी नाम का उल्लेख किया है. कुंवर सिंह की मौत के बाद क्रांति की ज्वाला उनके भाई अमर सिंह ने जलाए रखी और 1859 में नेपाल के तराई में बाकी देश के बचे हुए क्रांतिकारियों से हाथ मिलाकर लड़ाई को आगे जारी रखने के अरसे तक प्रयास किए. लेकिन ना बिहार में और ना देश में आजादी की पूरी लड़ाई में इतना वीर और दूरदर्शी कोई और नेता नहीं हुआ, जो 80 साल की उम्र में भी जवानों जैसे जोश के साथ मौत की बाजी लगाकर जंग के मैदान में उतर सके और मरते दम तक किसी के भी हाथ ना आए.
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