बिहार के दो बार मुख्यमंत्री, एक बार उपमुख्यमंत्री, पिछड़ों-दबे-कुचलों के उन्नायक और बिहार के शिक्षा मंत्री रह चुके कर्पूरी ठाकुर के जन्मदिन की आज 94वीं वर्षगांठ है. लोग उन्हें जननायक के रूप में भी जानते हैं. लंबे समय तक यह झूठ फैलाया जाता रहा कि लालू प्रसाद ने कर्पूरी ठाकुर को कपटी ठाकुर कहा क्योंकि उन्होंने ग़रीब सवर्णों के लिए भी उस 26 % आरक्षण में से 3 % देने की व्यवस्था की,जबकि सच का इन बातों से दूर-दूर तक कोई लेनादेना नहीं है. ऐसा माना जाता है कि शिवनंदन पासवान को कर्पूरी जी विधानसभा उपाध्यक्ष बनाना चाह रहे थे और दूसरी तरफ गजेन्द्र हिमांशु भी अपनी दावेदारी पेश कर रहे थे. तो तय हुआ कि दोनों के नाम से लॉटरी निकाली जाए. लॉटरी के सहारे शिवनंदन पासवान बन गए विधानसभा उपाध्यक्ष. पर जब पता चला कि लॉटरी में दोनों पर्ची शिवनंदन पासवान के नाम की ही कर्पूरी जी ने लिख के डलवा दी. बस, तभी से हिमांशु जी उन्हें कपटी ठाकुर बुलाने लगे.
लंबे समय तक यह झूठ फैलाया जाता रहा कि लालू प्रसाद ने कर्पूरी ठाकुर को कपटी ठाकुर कहा क्योंकि उन्होंने ग़रीब सवर्णों के लिए भी उस 26 % आरक्षण में से 3 % देने की व्यवस्था की. जबकि सच का इन बातों से दूर-दूर तक कोई लेनादेना नहीं है. हुआ यूं कि शिवनंदन पासवान को कर्पूरी जी विधानसभा उपाध्यक्ष बनाना चाह रहे थे और दूसरी तरफ गजेन्द्र हिमांशु भी अपनी दावेदारी पेश कर रहे थे. तो तय हुआ कि दोनों के नाम से लॉटरी निकाली जाए. लॉटरी के सहारे शिवनंदन पासवान बन गए विधानसभा उपाध्यक्ष. पर जब पता चला कि लॉटरी में दोनों पर्ची शिवनंदन पासवान के नाम की ही कर्पूरी जी ने लिख के डलवा दी. बस, तभी से हिमांशु जी उन्हें कपटी ठाकुर बुलाने लगे. लालू का इस प्रसंग से कोई वास्ता ही नहीं. कर्पूरी जी ने अंतिम सांस लालू प्रसाद की गोद में ली. उनके गुज़रने के बाद ही वे अपने दल के नेता चुने गए, नेता, प्रतिपक्ष, बिहार विधानसभा बने. दोनों में कभी कोई तक़रार ही नहीं थी, हां कर्पूरी जी पासवान और रामजीवन सिंह को ज़रूर फूटी आंख नहीं देखना चाहते थे. कर्पूरी जी सही मायने में महान सोशलिस्ट नेता थे, निजी और सार्वजनिक जीवन, दोनों में उन्होंने उच्च मानदंड स्थापित किए थे.
वह पीढ़ी वाकई ख़ुशक़िस्मत है जो सच्चे समाजवादियों से रुबरू हुई है. जब पहली बार 52 में कर्पूरी जी विधायक बने, तो आस्ट्रिया जाने वाले प्रतिनिधि मंडल में उनका चयन हुआ था. उनके पास कोट नहीं था, किसी दोस्त से मांग कर गए थे. वहां मार्शल टीटो ने देखा कि कर्पूरी जी का कोट फटा हुआ है, तो उन्हें नया कोट गिफ़्ट किया गया. पिछले दिनों कर्पूरी जी के छोटे बेटे को सुन रहा था. वो बता रहे थे कि 74 में उनका मेडिकल की पढ़ाई के लिए चयन हुआ, पर वो बीमार पड़ गए. राममनोहर लोहिया हास्पिटल में भर्ती थे. हार्ट की सर्जरी होनी थी. इंदिरा जी को जैसे ही मालूम चला, एक राज्यसभा सांसद (जो पहले सोशलिस्ट पार्टी में ही थे, बाद में कांग्रेस ज्वाइन कर लिया) को भेजा और वहां से एम्स में भर्ती कराया. ख़ुद दो बार मिलने गईं और कहा, ‘इतनी कम उम्र में तुम कैसे इतना बीमार पड़ गए? तुम्हें अमेरिका भेज देती हूं, वहां अच्छे से इलाज़ हो जाएगा. सब सरकार वहन करेगी. फिर आकर पढ़ाई करना.’ पर जैसे ही ठाकुर जी को मालूम चला तो उन्होंने कहा कि हम मर जाएंगे पर बेटे का इलाज़ सरकारी खर्च पर नहीं कराएंगे. बाद में जेपी ने कुछ व्यवस्था कर न्यूज़ीलैंड भेजकर उनका इलाज़ कराया. अगले साल उन्होंने मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया. आज उनके बेटे-बेटी दोनों डॉक्टर हैं, दामाद फोरेस्ट सर्विस में हैं, बाह्य आडंबर से कोसों दूर.
सचमुच, कर्पूरी जी ने अपने बच्चों को भी सदाचरण का पाठ पढ़ाया. कर्पूरी जी के अंदर कभी संचय-संग्रह की प्रवृत्ति नहीं रही. इसलिए, लोग आज भी उन्हें जननायक के नाम से जानती है. पिछली पीढ़ी इसलिए भी ख़ुशनसीब है कि उसने कई उसूल वाले नेताओं को देखा है और हमारी नस्ल लेसर एविल को चुनने को मजबूर. कर्पूरी जी जब मुख्यमंत्री थे तो उनके प्रधान सचिव थे यशवंत सिन्हा, जो आगे चलकर श्री चंद्रशेखर की सरकार में वित्त मंत्री एवं वाजपेयी जी की कैबिनेट में वित्त और विदेश मंत्री बने. एक दिन दोनों अकेले में बैठे थे, तो कर्पूरी जी ने सिन्हा साहब से कहा, ‘आर्थिक दृष्टिकोण से आगे बढ़ जाना, सरकारी नौकरी मिल जाना, इससे क्या यशवंत बाबू आप समझते हैं कि समाज में सम्मान मिल जाता है? जो वंचित वर्ग के लोग हैं, उसको इसी से सम्मान प्राप्त हो जाता है क्या? नहीं होता है.’
उन्होंने अपना उदाहरण दिया कि मैट्रिक में फर्स्ट डिविज़न से पास हुए. गांव के समृद्ध वर्ग के एक व्यक्ति के पास नाई का काम कर रहे उनके बाबूजी उन्हें लेकर गए और कहा कि सरकार, ये मेरा बेटा है, 1st डिविज़न से पास किया है. उस आदमी ने अपनी टांगें टेबल के ऊपर रखते हुए कहा, ‘अच्छा, फर्स्ट डिविज़न से पास किए हो? मेरा पैर दबाओ, तुम इसी क़ाबिल हो. तुम 1st डिविज़न से पास हो या कुछ भी बन जाओ, हमारे पांव के नीचे ही रहोगे.’ यशवन्त सिन्हा पिछले दिनों एक कार्यक्रम में बोलते हुए कर्पूरी जी के साथ अपने पुराने अनुभव ताज़ा कर रहे थे, ‘ये है हमारा समाज. उस समय भी था, आज भी है, यही है समाज. हमारे समाज के मन में कूड़ा भरा हुआ है और इसीलिए यह सिर्फ़ आर्थिक प्रश्न नहीं है. हमको सरकारी नौकरी मिल जाए, हम पढ़-लिख जाएं, कुछ संपन्न हो जाएं, उससे सम्मान नहीं मिलेगा. सम्मान तभी मिलेगा जब हमारी मानसिकता में परिवर्तन होगा. जब हम वंचित वर्गों को वो इज़्ज़त देंगे जो उनका संवैधानिक-सामाजिक अधिकार है और इसके लिए मानसिकता में चेंज लाना बहुत ज़रूरी है.’
आगे यशवंत सिन्हा कहते हैं कि जब बात आई आरक्षण की, तो बहुत लोग विरोध में खड़े हुए. बहुत आसान है विरोध कर देना, लेकिन विरोध वैसे ही लोग कर रहे हैं जो चाहते हैं कि पुरानी जो सामाजिक व्यवस्था है, रूढ़िवादी व्यवस्था है, उसे आगे भी चलाया जाए. वो परिवर्तन के पक्ष में नहीं हैं. कर्पूरी जी अक़्सर कहते थे, ‘यदि जनता के अधिकार कुचले जायेंगे तो आज-न-कल जनता संसद के विशेषाधिकारों को चुनौती देगी.’ बतौर सदस्य, बिहार स्टूडेंट्स फेडरेशन, हाईस्कूल डेज़ में कृष्णा टाकीज़ हाल, समस्तीपुर में कर्पूरी जी ने छात्रों की एक सभा में कहा था, ‘हमारे देश की आबादी इतनी अधिक है कि केवल थूक फेंक देने भर से अंग्रेज़ी राज बह जाएगा.’ 67 में जब पहली बार 9 राज्यों में गैरकांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ तो महामाया प्रसाद के मंत्रिमंडल में कर्पूरी जी शिक्षा मंत्री और उपमुख्यमंत्री बने. उन्होंने मैट्रिक में अंग्रेज़ी की अनिवार्यता समाप्त कर दी और यह बाधा दूर होते ही कबीलाई-क़स्बाई-देहाती लड़के भी उच्चतर शिक्षा की ओर अग्रसर हुए, नहीं तो पहले वे मैट्रिक में ही घोलट जाते थे.
1970 में 163 दिनों के कार्यकाल वाली कर्पूरी जी की पहली सरकार ने कई ऐतिहासिक फ़ैसले लिए. 8वीं तक की शिक्षा उन्होंने मुफ़्त कर दी. उर्दू को दूसरी राजकीय भाषा का दर्ज़ा दिया. 5 एकड़ तक की ज़मीन पर मालगुज़ारी खत्म किया. फिर जब 77 में दोबारा मुख्यमंत्री बने तो एस-एसटी के अतिरिक्त ओबीसी के लिए आरक्षण लागू करने वाला बिहार देश का पहला सूबा था. 11 नवंबर, 1978 को महिलाओं के लिए 3 % (इसमें सभी जातियों की महिलाएं शामिल थीं), ग़रीब सवर्णों के लिए 3 % और पिछडों के लिए 20 % यानी कुल 26 % आरक्षण की घोषणा की. कर्पूरी जी को बिहार के शोषित लोगों ने इस कदर सिर बिठाया कि वे कभी चुनाव नहीं हारे. इतने सादगीपसंद कि जब प्रधानमंत्री चरण सिंह उनके घर गए तो दरवाज़ा इतना छोटा था कि चौधरी जी को सर में चोट लग गई. चरण सिंह ने कहा, ‘कर्पूरी, इसको ज़रा ऊंचा करवाओ.’ ठाकुर जी बोलते थे कि जब तक बिहार के ग़रीबों का घर नहीं बन जाता, मेरा घर बन जाने से क्या होगा? राष्ट्रीय राजनीति में भी इतनी पैठ कि संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे.
कर्पूरी जी ने कभी भी संसद या विधानसभा को फॉर ग्रांटिड नहीं लिया. वे जब भी सदन में अपनी बात रखते थे, पूरी तैयारी के साथ, उनकी गरिमापूर्ण अभिव्यक्ति से समूचा सदन लाभान्वित होता था. उन्होंने कभी किसी से सियासी कटुता नहीं रखी. कर्पूरी जी सचमुच जननेता ते जिनके पीछे जनता गोलबंद होती थी. वे सादगी के पर्याय थे, कहीं कोई आडंबर नहीं, कोई ऐश्वर्य-प्रदर्शन नहीं. वे लोकराज की स्थापना के हिमायती थे और सारा जीवन उसी में लगा दिया. 17 फरवरी, 1988 को अचानक तबीयत बिगड़ने से उनका देहांत हो गया. आज उन्हें एक जातिविशेष के दायरे में महदूद कर देखा जाता है, जबकि उन्होंने रुग्ण समाज की तीमारदारी को अपने जीवन का मिशन बनाया. उन्हें न केवल राजनैतिक, बल्कि सामाजिक, शैक्षणिक व सांस्कृतिक चेतना के प्रसार की भी बड़ी चिंता थी. वे समस्त मानवता की हितचिंता करने वाले भारतीय समाज के अनमोल प्रहरी थे. ऐसे कोहिनूर कभी मरा नहीं करते! कृष्ण बिहारी ने ठीक ही कहा:
अपनी रचनाओं में वो ज़िंदा है,
नूर संसार से गया ही नहीं.
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