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मोहर्रम में आग पर नंगे पैर चलना, तलवारों-खंजरों से खुद को क्यों जख्मी करते हैं शिया मुस्लिम?

नई दिल्ली: इस्लाम में चार पवित्र महीने हैं, उनमें से एक मुहर्रम है. मुहर्रम शब्द से हरम का मतलब किसी चीज़ पर प्रतिबंध है और मुस्लिम समाज में इसका बहुत महत्व है. मुहर्रम की तारीख हर साल बदलती रहती है. शहादत का त्योहार मुहर्रम का इस्लाम धर्म में बहुत महत्व है. इस्लामिक कैलेंडर का यह […]

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मोहर्रम में आग पर नंगे पैर चलना, तलवारों-खंजरों से खुद को क्यों जख्मी करते हैं शिया मुस्लिम?
  • November 16, 2024 11:41 am Asia/KolkataIST, Updated 1 month ago

नई दिल्ली: इस्लाम में चार पवित्र महीने हैं, उनमें से एक मुहर्रम है. मुहर्रम शब्द से हरम का मतलब किसी चीज़ पर प्रतिबंध है और मुस्लिम समाज में इसका बहुत महत्व है. मुहर्रम की तारीख हर साल बदलती रहती है. शहादत का त्योहार मुहर्रम का इस्लाम धर्म में बहुत महत्व है. इस्लामिक कैलेंडर का यह पहला महीना पूरे उत्साह के साथ मनाया जाता है. इस महीने के पहले दस दिनों में पैगंबर मुहम्मद के उत्तराधिकारी इमाम हुसैन की तकलीफों पर शोक मनाया जाता है. हालाँकि, बाद में इसे युद्ध में शहादत के उत्सव के रूप में मनाया जाता है. लोग उनकी शहादत को ताजों से सजाकर अपनी ख़ुशी का इज़हार करते हैं.

जानें मुहर्रम क्यों मनाया जाता है?

मुहर्रम मनाने का इतिहास काफी दर्दनाक है लेकिन इसे बहादुरी के रूप में देखा जाता है. ऐसा माना जाता है कि वर्ष 61 हिजरी के दौरान कर्बला (जो अब इराक में है) यज़ीद इस्लाम का राजा बनना चाहता था. इसके लिए उसने लोगों में डर फैलाना शुरू कर दिया और लोगों को गुलाम बनाना शुरू कर दिया. लेकिन इमाम हुसैन और उनके भाई उनके सामने नहीं झुके और युद्ध में उनका डटकर मुकाबला किया. कहा जाता है कि इमाम हुसैन अपनी पत्नी और बच्चों की सुरक्षा के लिए मदीना से इराक जा रहे थे, तभी यजीद की सेना ने उन पर हमला कर दिया.

डटकर किया मुकाबला

इमाम हुसैन और उनके साथियों की संख्या केवल 72 थी जबकि यजीद की सेना में हजारों सैनिक थे. लेकिन इमाम हुसैन और उनके साथियों ने उनका बहादुरी से मुकाबला किया. ये जंग कई दिनों तक चलती रही और भूख-प्यास से लड़ते हुए इमाम के साथी एक-एक कर कुर्बान हो गए. इमाम हुसैन अंत तक अकेले लड़ते रहे और मुहर्रम के दसवें दिन, जब वह नमाज़ पढ़ रहे थे, दुश्मनों ने उन्हें मार डाला. जो इमाम पूरे साहस के साथ लड़े वे मृत्यु के बाद भी जीत के हकदार थे और शहीद कहलाये. ये लड़ाई जीतने के बाद भी यज़ीद के लिए बहुत बड़ी हार थी. उस दिन से आज तक मुहर्रम का महीना शहादत के रूप में याद किया जाता है.

लोग खुद को क्यों करते हैं जख्मी?

शिया मुसलमान अपनी सारी खुशियाँ त्याग देते हैं और सवा दो महीने तक शोक मनाते हैं. हुसैन पर हुए अत्याचारों को याद कर रोयें. ऐसा करने वालों में सिर्फ पुरुष ही नहीं बल्कि बच्चे, बूढ़े और महिलाएं भी शामिल हैं. इस युद्ध में जो महिलाएं और बच्चे बच गए थे, उन्हें यजीद ने बंदी बनाकर जेल में डाल दिया था. मुसलमानों का मानना ​​है कि यज़ीद ने अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए हुसैन पर अत्याचार किए. शिया मुसलमान उनकी याद में शोक मनाते हैं और रोते हैं. इस दिन वे शोक जुलूस निकालकर इमाम हुसैन और उनके परिवार पर हुए अत्याचारों को दुनिया के सामने रखना चाहते हैं. खुद को घायल करके वह यह दिखाना चाहता था कि यजीद ने इमाम हुसैन को जो घाव दिए थे, वे कुछ भी नहीं थे।

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